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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-४
[१६] मनुष्य स्त्रियों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए ।
१७. एवं जाव वाणमंतर - जोतिसिय-वेमाणियदेवित्थीओ।
[१७] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की देवियों के विषय के भी इसी प्रकार ( कहना
चाहिए ।)
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विवेचन— नारक से वैमानिक तक तथा उनकी स्त्रियों और सिद्धों में कृतयुग्मादि राशि - परिमाण-निरूपण—— प्रस्तुत १३ सूत्रों (सू. ५ से १७ तक) में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक तथा उनकी स्त्रियों और सिद्धों में कृतयुग्मादिराशि का प्रतिपादन किया गया है।
फलितार्थ- प्रश्न का आशय यह है कि नारक से वैमानिक तक तथा उनकी स्त्रियाँ क्या कृतयुग्मादि रूप हैं ? अर्थात् इनका परिमाण क्या कृतयुग्म रूप है या अन्य प्रकार का है ? इसके उत्तर का आशय यह है कि जघन्यपद और उत्कृष्टपद, ये दोनों पद निश्चित संख्यारूप होते हैं । इसी से ये दोनों पद नियतसंख्या वाले नारकादि में ही सम्भव हैं, अनियत संख्या वाले वनस्पतिकायिकों एवं सिद्धों में नहीं। इसका एक कारण यह भी है कि नारकादिकों में जघन्यपद और उत्कृष्ट पद कालान्तर में सम्भव है, जब कि वनस्पतिकायिक जीवों के विषय में कालान्तर में भी जघन्य और उत्कृष्ट पद संभवित नहीं होता । अतः निश्चित संख्या वाले नैरयिक आदि की राशि का परिमाण इन पारिभाषिक शब्दों में करते हुए कहते हैं कि जब अत्यन्त अल्प होते हैं, तब कृतयुग्म होते हैं, जब उत्कृष्ट होते हैं तब योज होते हैं, तथा मध्यमपद में चारों राशि वाले होते हैं । इसी प्रकार तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय, मनुष्य, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव ये सब जघन्यपद में कृतयुग्मराशि-परिमित हैं और उत्कृष्टपद में योजराशि-परिमित हैं। मध्यमपद में कदाचित् कृतयुग्म, कदाचित् त्र्योज, कदाचित् द्वापरयुग्म और कदाचित् कल्योज हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पृथ्वी - अप्-तेजो- वायु रूप जीव जघन्यपद में कृतयुग्म रूप एवं उत्कृष्टपद में द्वारपयुग्मपरिमित हैं, मध्यमपद में चारों राशि वाले होते हैं । वनस्पतिकाय की संख्या निश्चित न होने से उनमें जघन्य और उत्कृष्ट पद घटित नहीं हो सकता, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं । यद्यपि जितने जीव परम्परा से मोक्ष में चले जाते हैं, उतने जीव उनमें से घटते ही हैं, तथापि उसका अनन्तत्व कायम रहने से वह राशि अनिश्चित संख्यारूप मानी जाती है। वनस्पतिकाय के समान सिद्धजीवों में भी जघन्यपद और उत्कृष्ट पद सम्भव नहीं होता, क्योंकि सिद्ध जीवों की संख्या बढ़ती जाती है, तथा अनन्त होने से उनका परिमाण अनियत रहता है ।
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नारक सभी नपुंसक होने से उनमें स्त्रियाँ सम्भव नहीं हैं। असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक की स्त्रियाँ (देवियाँ), तिर्यंचयोनिक स्त्रियाँ, मनुष्यस्त्रियाँ तथा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की स्त्रियाँ जघन्य और उत्कृष्ट दोनों पदों में कृतयुग्म-परिमित हैं। मध्यमपद में कृतयुग्म आदि चारों राशियों वाली हैं ।
(क) भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति पत्र ७४५
(ख) भगवती भाग १३, (प्रमेयचन्द्रिय टीका) पृ. २२-२३