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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-३
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निर्जरा । मारणान्तिकमार—मृत्यु के अन्तिम क्षणों के आयुर्दलिक की अपेक्षा से जो मार अर्थात् मरण हो, वह । मारणान्तिक—शरीरत्याग—आयुष्य के अन्तिम समय में जो शरीर हो वह मारणान्तिक शरीर है, उसको छोड़ना मारणान्तिक शरीरत्याग है।
चरिमा निज्जरापोग्गला : अर्थ—केवली के सर्वान्तिम जो निर्जीर्ण किये हुए कर्मदलिक हैं, वे चरम निर्जरा-पुद्गल हैं। इन पुद्गलों को भगवान् ने सूक्ष्म कहा है। ये सम्पूर्ण लोक को अभिव्याप्त करके रहते हैं।'
९ [१] छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसिं निजरापोग्गलाणं किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा० ?
एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे जाव वेमाणिया जाव तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति आहारेंति, से तेणट्टेणं निक्खेवो भाणियव्वो त्ति ण पासंति, आहारेंति।
[९-१ प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के अन्यत्व और नानात्व को जानता देखता है ?
[९-१ उ.] हे माकन्दिकपुत्र! प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम इन्द्रियोद्देशक के अनुसार वैमानिक तक जानना चाहिए। यावत्-इनमें जो उपयोगयुक्त हैं, वे (उन निर्जरापुद्गलों को) जानते, देखते और आहाररूप में ग्रहण करते हैं, इस कारण से हे माकन्दिकपुत्र ! यह कहा जाता है कि ............ यावत् जो उपयोगरहित हैं, वे उन पुद्गलों को जानते-देखते नहीं, किन्तु उन्हें आहरण-ग्रहण करते हैं, इस प्रकार (यहाँ समग्र) निक्षेप (प्रज्ञापनासूत्रगत वह पाठ) कहना चाहिए।
[२] णेरइया णं भंते! णिज्जरापोग्गला ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति ? एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं। [९-२ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक उन निर्जरापुद्गलों को नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं?
[९-२ उ.] हाँ, वे उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते नहीं, किन्तु ग्रहण करते हैं, इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों तक जानना चाहिए।
३. मणुस्सा णं भंते! णिजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेंति, उदाहु ण जाणंति ण पासंति णाहारंति ?
गोयमा ! अत्थेइया जाणंति ३, अत्थेगइया ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति।
[९-३ प्र.] भगवन् ! क्या मनुष्य उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं, अथवा वे नहीं जानते-देखते, और न ही आहरण करते हैं?
[९-३ उ.] गौतम! कई मनुष्य उन पुद्गलों को जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं, कई मनुष्य नहीं जानते-देखते, किन्तु उन्हें ग्रहण करते हैं।
१ भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति पत्र ७४१ २. यहाँ मौलिक सूत्र यहीं तक है। किन्तु वृत्तिकार ने इससे आगे का प्रज्ञापनासूत्रीय पाठ मूलवाचना में स्वीकृत किया है।-सं.