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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
नहीं की गई है।
८. तए णं से मागंदियपुत्ते अणगारे उट्ठाए उट्ठेइ, उ० २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० २ समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वं० २ एवं वदासी अणगारस्स णं भंते! भावियप्पणी सव्वं कम्मं वेदेमाणस्स, सव्वं कम्मं निज्जरेमाणस्स, सव्वं मारं मरमाणस्स, सव्वं सरीरं विप्पजहमाणस्स, चरिमं कम्मं वेदेमाणस्स, चरिमं कम्मं निज्जरेमाणस्स, चरिमं मारं मरमाणस्स, चरिमं सरीरं विप्पजहमाणस्स, मारणंतियं कम्मं वेदेमाणस्स, मारणंतियं कम्मं निज्जरेमाणस्स, मारणंतियं मारं मरमाणस्स, मारणंतियं सरीरं विप्पजहमाणस्स जे चरिमा निज्जरापोग्गला, सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणासो ! सव्वं लोगं पि णं ते ओगाहित्ताणं चिट्ठति ?
हंता, मागंदियपुत्ता! अणगारस्स णं भावियप्पणो जाव ओगाहित्ताणं चिट्ठति ।
[८ प्र.] तत्पश्चात् माकन्दिकपुत्र अनगार अपने स्थान से उठे और श्रमण भगवान् महावीर के पास आए । उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा— भगवन् ! सभी कर्मों को वेदते (भोगते हुए, सर्वकर्मों की निर्जरा करते हुए, समस्त मरणों से मरते हुए, सर्वशरीर को छोड़ते हुए तथा चरम कर्म को वेदते हुए, चरम कर्म की निर्जरा करते हुए, चरम मरण से मरते हुए, चरमशरीर को छोड़ते हुए एवं मारणान्तिक कर्म को वेदते हुए, निर्जरा करते हुए, मारणान्तिक मरण से मरते हुए, मारणान्तिक शरीर को छोड़ते हुए भावितात्मा अनगार के जो चरमनिर्जरा के पुद्गल हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं? हे आयुष्मन् श्रमणप्रवर ! क्या वे पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं ?
[८ उ.] हाँ, माकन्दिकपुत्र ! तथाकथित (पूर्वोक्त) भावितात्मा अनगार के यावत् वे चरम निर्जरा के पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं ।
विवेचन — भावितात्मा अनगार का अर्थ है— ज्ञानादि से जिसकी आत्मा वासित है । यहाँ केवली से तात्पर्य है । सर्व कर्म-वेदन - निर्जरण, सर्वमार-मरण, सर्वशरीरत्याग का तात्पर्य केवली के सर्व कर्म भवोपग्राही चार (वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ) कर्म होते हैं । इन्हीं सर्व कर्मों का वेदन अर्थात् — अनुभव करना - भोगना । सभी भवोपग्राही कर्मों का निर्जरण अर्थात् — आत्मप्रदेशों से पृथक् होना। सभी आयुष्य के पुद्गलों की अपेक्षा से अन्तिम मरण सर्वमार है । सर्व अर्थात् औदारिक समस्त शरीरों को छोड़ना - सर्वशरीरत्याग है। चरम कर्म-वेदन-निर्जरण, चरममारमरण एवं चरमशरीरत्याग का तात्पर्य — चरमकर्म वेदन एवं निर्जरण का अर्थ है— आयुष्य के चरम समय में वेदन करने योग्य कर्म का वेदन एवं चरमकर्मों को आत्मप्रदेश से दूर करना कर्मनिर्जरण है । चरममारमरण का अर्थ है— आयुष्य के पुद्गलों के क्षय की अपेक्षा से चरम (अन्तिम) मरण से मृत्यु को प्राप्त । चरमशरीरत्याग —— चरमावस्था में जो शरीर है, उसे छोड़ना । मारणान्तिक कर्म वेदन एवं निर्जरण - समस्त आयुष्यक्षयरूप मरण के अन्त यानी समीप को मरणान्त कहते हैं, अर्थात् आयुष्य का चरमसमय। मरणान्त में होने वाला मारणान्तिक, जो भवोपग्राहीत्रयरूप कर्म है, उसका वेदन एवं
१. (क) भगवती सूत्र. अ. वृत्ति, पत्र ७४०
(ख) भगवती सूत्र (पं. घेवरचन्दजी) भाग-६, पृ. २६७९