________________
६७३
अठारहवां शतक : उद्देशक-१
[६५ उ.] गौतम! वह (नैरयिकभाव से) कदाचित् चरम है और कदाचित् अचरम है। ६६. एवं जाव वेमाणिए। [६६] इसी प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए। ६७. सिद्धे जहा जीवे। [६७] सिद्ध का कथन जीव के समान जानना चाहिए। ६८. जीवा णं. पुच्छा। गोयमा ! नो चरिमा, अचरिमा। [६८ प्र.] अनेक जीवों के विषय में चरम-अचरम-सम्बन्धी प्रश्न ? [६८ उ.] गौतम! वे चरम नहीं, अचरम हैं। ६९. नेरतिया चरिमा वि, अचरिमा वि। [६९] नैरयिकजीव, नैरयिकभाव से चरम भी हैं, अचरम भी हैं। ७०. एवं जाव वेमाणिया। [७०] इसी प्रकार वैमानिक तक समझना चाहिए। ७१. सिद्धा जहा जीवा। [७१] सिद्धों का कथन जीवों के समान है। ७२. आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। पहत्तेणं चरिमा वि, अचरिमा वि।
[७२] आहारकजीव सर्वत्र एकवचन से कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है। बहुवचन से आहारक चरम भी होते हैं और अचरम भी होते हैं।
७३. अणाहारओ जीवो सिद्धो य, एगत्तेण वि पुहत्तेण वि नो चरिमा, अचरिमा। [७३] अनाहारक जीव और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से भी चरम नहीं हैं, अचरम हैं। ७४. सेसट्ठाणेसु एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारओ (सु. ७२ )।
[७४] शेष (नैरयिक आदि) स्थानों में (अनाहारक) एकवचन और बहुवचन से, (सू. ७२ में उल्लिखित) आहारक जीव के समान (कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम) जानना चाहिए।
७५. भवसिद्धीओ जीवपदे एगत्त-पुहत्तेणं चरिमे, नो अचरिमे। [७५] भवसिद्धिकजीव, जीवपद में, एकवचन और बहुवचन से चरम हैं, अचरम नहीं हैं। ७६. सेसट्ठाणेसु जहा आहारओ।