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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
आहारक-अनाहारकभाव की अपेक्षा का आशय सभी सिद्धजीव सदैव अनाहारक रहते हैं, इसलिए उनके विषय में आहारकभाव की अपेक्षा से एकवचन-बहुवचन-परक प्रश्न नहीं किया गया है। संसारी
त में अनाहारक रहते हैं. शेष समय में आहारक। इसलिए एक या अनेक आहारकजीव या संसारी सभी जीव आहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम नहीं हैं, क्योंकि अनादिभवों में अनन्त वार उन्होंने आहारकभाव प्राप्त किया है। संसारी जीव विग्रहगति में ही अनाहारक होता है, इसलिए जब एक या अनेक संसारी जीव विग्रहगति में होते हैं, तब वह अप्रथम होते हैं। क्योंकि उन्हें विग्रहगति में अनाहारकपन पहले अनन्त बार प्राप्त हो चुका है। किन्तु जब एक या अनेक संसारी जीव सिद्ध होते हैं, तब अनाहारकभाव की अपेक्षा से उन्हें अनाहारकत्व पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था, इसलिए उन्हें प्रथम कहा गया है। १२ वें सूत्र में इसी दृष्टि से कहा गया है 'सिय पढमे, सिय अपढमे।' किन्तु नैरयिक से वैमानिक तक के जीव विग्रहगति में अनन्त बार अनाहारकत्व प्राप्त कर चुके हैं, इस अपेक्षा से उन्हें अप्रथम कहा गया है। किन्तु एक या अनेक सिद्धजीव अनाहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम होते हैं, क्योंकि उन्हें पहले कभी अनाहारकत्व प्राप्त नहीं हुआ था। भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक तथा नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक के विषय में भवसिद्धिकत्वादि दृष्टि से प्रथम-अप्रथम प्ररूपण
१८. भवसिद्धीए एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए (सु. ९-११)।
[१८] भवसिद्धिक जीव (भवसिद्धिकपन की अपेक्षा से) एकत्व-अनेकत्व दोनों प्रकार से (सू. ९-११ में उल्लिखित) आहारक जीव के समान प्रथम नहीं, अप्रथम है, इत्यादि कथन करना चाहिए।
१९. एवं अभवसिद्धीए वि। [१९] इसी प्रकार अभवसिद्धिक एक या अनेक जीव के विषय में भी जान लेना चाहिए। २०. नोभवसिद्धीए-नोअभवसिद्धीए णं भंते! जीवे नोभव० पुच्छा। गोयमा ! पढमे, नो अपढमे।
[२० प्र.] भगवन् ! नो-भवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिक जीव नोभवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिकभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम है ?
[२० उ.] गौतम! वह प्रथम है, अप्रथम नहीं है। २१. नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीये णं भंते ! सिद्धे नोभव.? एवं चेव। [२१ प्र.] भगवन् ! नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक सिद्धजीव नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिकभाव की
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७३४