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________________ अठारहवाँ शतक : उद्देशक-१ ६६१ [१०] इसी प्रकार नैरयिक से लेकर वैमानिक तक जानना चाहिए। ११. पोहत्तिए एवं चेव। [११] बहुवचन में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। १२. अणाहारए णं भंते ! जीवे अणाहारभावेणं. पुच्छा। गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे। [१२ प्र.] भगवन् ! अनाहारक जीव, अनाहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम है ? [१२ उ.] गौतम! (अनाहारकजीव, अनाहारकत्व की अपेक्षा से) कदाचित् प्रथम होता है, कदाचित् अप्रथम होता है। १३. नेरतिए णं भंते ! ०? एवं नेरतिए जाव वेमाणिए नो पढमे, अपढमे। [१३. प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव, अनाहारकभाव से प्रथम है या अप्रथम है ? [१३. उ.] गौतम! वह प्रथम नहीं, अप्रथम है। इसी प्रकार नैरयिक से लेकर वैमानिक तक (अनाहारकभाव की अपेक्षा से) प्रथम नहीं, अप्रथम जानना चाहिए। १४. सिद्धे पढमे, नो अपढमे। [१४] सिद्धजीव, अनाहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम है, अप्रथम नहीं है। १५. अणाहारगा णं भंते ! जीवा अणाहारभावेणं. पुच्छा। गोयमा ! पढमा वि, अपढमा वि। [१५ प्र.] भगवन् ! अनेक अनाहारकजीव, अनाहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम हैं या अप्रथम हैं ? [१५ उ.] गौतम! वे प्रथम भी हैं और अप्रथम भी हैं। १६. नेरतिया जाव वेमाणिया णो पढमा, अपढमा। [१६] इसी प्रकार अनेक नैरयिकजीवों से लेकर अनेक वैमानिकों तक (अनाहारकभाव की अपेक्षा से) प्रथम नहीं, अप्रथम हैं। १७. सिद्धा पढमा, नो अपढमा। एक्केक्के पुच्छा भाणियव्वा। [१७] सभी सिद्ध (अनाहारकभाव की अपेक्षा से) प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं। इसी प्रकार प्रत्येक दण्डक के विषय में इसी प्रकार पृच्छा (करके समाधान) कहना चाहिए। विवेचन (२) आहारकद्वार–प्रस्तुत नौ सूत्रों (९ से १७ तक) में आहारक एवं आनाहारकभाव की अपेक्षा से शंका-समाधान प्रस्तुत किया गया है।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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