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पढमो उद्देसओ : 'पढमा'
प्रथम उद्देशक : 'प्रथम-अप्रथम' जीव, चौवीस दण्डक और सिद्ध में जीवत्व-सिद्धत्व की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण
२. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी–१ [२] उस काल और उस समय में राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा३. जीवे णं भंते ! जीवभावेणं किं पढमे, अपढमे ? गोयमा! नो पढमे, अपढमे। (३ प्र.) भगवन् ! जीव, जीवभाव से प्रथम है, अथवा अप्रथम है ? . (३ उ.) गौतम ! (जीव, जीवभाव की अपेक्षा से) प्रथम नहीं, अप्रथम है।
४. एवं नेरइए जाव वेमाणिए। [४] इस प्रकार नैरयिक से लेकर वैमानिक तक जानना चाहिए। ५. सिद्धे णं भंते ! सिद्धाभावेणं किं पढमे, अपढमे ? गोयमा! पढमे, नो अपढमे। [५ प्र.] भगवन् ! सिद्ध-जीव, सिद्धभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम है ? [५ उ.] गौतम! (सिद्धजीव, सिद्धत्व की अपेक्षा से) प्रथम है, अप्रथम नहीं है। ६. जीवा णं भंते ! जीवभावेणं किं पढमा, अपढमा ? गोयमा! नो पढमा, अपढमा। [६ प्र.] भगवन् ! अनेक जीव, जीवत्व की अपेक्षा से प्रथम हैं अथवा अप्रथम हैं ?
१. प्रस्तुत उद्देशक के प्रारम्भ में उद्देशक के द्वारों से सम्बन्धित निम्नोक्त गाथा अभयदेववृत्ति आदि में अंकित है
जीवाहारग-भव-सण्णि-लेसा-दिट्ठी य संजय कसाए।
णाणे जोगुवओगे वेए य सरीर-पजत्ती॥ अर्थात्-प्रस्तुत उद्देशक में चौदह द्वार हैं-(१) जीवद्वार, (२) आहारकद्वार, (३) भवीद्वार, (४) संजीद्वार, (५) लेश्याद्वार, (६) दृष्टिद्वार, (७) संयतद्वार, (८) कषायद्वार, (९) ज्ञानद्वार, (१०) योगद्वार, (११) उपयोगद्वार, (१२) वेदद्वार, (१३) शरीरद्वार, (१४) पर्याप्तिद्वार।