SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 689
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ O ० ० O ● ● अट्ठारसमं सयं : अठारहवाँ शतक प्राथमिक व्याख्याप्रज्ञप्ति का यह अठारहवाँ शतक है। इसमें दश उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक का नाम 'प्रथम' है। इसमें १४ द्वारों की अपेक्षा से प्रथम- अप्रथम तथा चरम अचरम का निरूपण किया गया है। यह उद्देशक बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जीव को जो भाव पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है, किन्तु पहली बार वह प्राप्त करता है, उसे प्रथम और जो भाव पहले भी प्राप्त हुआ है, वह प्रथम कहलाता है । इसी प्रकार जिसका कभी अन्त होता है वह 'चरम' और जिसका कभी अन्त नहीं होता, वह 'अचरम' है । दूसरे उद्देशक का नाम 'विशाख' है। इसमें भगवान् महावीर की सेवा में विशाखानगरी में उपस्थित देवेन्द्र शक्र के द्वारा सदलबल नाटक प्रदर्शित करने का वर्णन है । तत्पश्चात् शक्रेन्द्र के पूर्वभव का वृत्तान्त कार्तिक सेठ के रूप में प्रस्तुत किया गया है। शक्रेन्द्र के पूर्वभव के वृत्तान्त से यह स्पष्ट प्रेरणा भी मिलती है कि पूर्वजन्म में निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर निरतिचार महाव्रतादि का पालन करने से ही इतनी उच्च स्थिि आगामी भव में प्राप्त होती है । तीसरे उद्देशक में माकन्दिकपुत्र अनगार द्वारा भगवान् से किये गए निम्नोक्त प्रश्नों का यथोचित समाधान अंकित किया गया है—(१) कृष्ण - नील- कापोतलेश्यी पृथ्वी अप्-वनस्पतिकायिक जीव मर कर अन्तररहित मनुष्यभव से केवली होकर सिद्ध हो सकता है या नहीं ? (२) सर्वकर्मों का वेदन—निर्जरण कर तथा समस्त मरण से मरते हुए आदि विशेषण युक्त भावितात्मा अनगार के चरम निर्जरा के सूक्ष्म पुद्गल क्या समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं? (३) उन चरमनिर्जरा - पुद्गलों को छद्मस्थ, मनुष्य या देव आदि जान सकते हैं या नहीं? (४) बन्ध प्रकार तथा भेदाभेद तथा आठों कर्मों के भाव बन्ध-सम्बन्धी प्रश्न हैं। (५) जीव के भूतकालीन तथा भविष्यत् कालीन पाप कर्म में कुछ भेद है या नहीं ? है तो किस कारण से? (६) आहार रूप से ग्रहीत पुद्गलों में से नैरयिक कितना भाग ग्रहण करता है, कितना त्यागता है ? तथा उन त्यागे हुए पुद्गलों पर कोई बैठ, उठ या सो सकता है ? चौथे उद्देशक में 'प्राणातिपात' सम्बन्धी कुछ प्रश्न हैं, जिनका समाधान किया गया है— (१) प्राणातिपात आदि ४८ जीव-अजीवरूप द्रव्यों में से कितने परिभोग्य हैं, कितने अपरिभोग्य ? (२) कषाय और उनसे आठों कर्मों की निर्जरा कैसे होती है ? (३) चार प्रकार के युग्म तथा उनकी परिभाषा क्या ? नैरयिकादि में किन में कौन - सा युग्म है ? (४) अन्धकवह्नि जीव जितने अल्पायु हैं, क्या उतने ही दीर्घायु हैं ? पंचम 'असुर' उद्देशक में चतुर्विध देवनिकायों में से एक ही निकाय के एक आवास में उत्पन्न दो देवों की सुन्दरता आदि में तथा एक ही नरकावास में उत्पन्न दो नारकों की वेदना में तारतम्य का कारण बताया गया
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy