________________
दसमो उद्देसओ : 'वाऊ'
दसवाँ उद्देशक : वायुकायिक (वक्तव्यता) रत्नप्रभा में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने योग्य वायुकायिक जीव पहले उत्पन्न होते हैं या पहले पुद्गल ग्रहण करते हैं ?
१. वाउकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए जाव जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं?
जहा पुढविकाइओ तहा वाउकाइओ वि, नवरं वाउकाइयाणं चत्तारि समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा—वेदणासमुग्घाए जाव वेउव्वियसमुग्घाए।मारणंतियसमुग्घाएणं समोहण्णमाणे देसेणं वा समो० । सेसं तं चेव जाव अहेसत्तमाए समोहओ, ईसिपब्भाराए उववातेयव्वो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः ।
॥ सत्तरसमे सए : दसमो उद्देसओ समत्तो॥१७-१०॥ [१ प्र.] भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी में मरण-समुद्घात करके सौधर्मकल्प में वायुकायिक रूप में उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न।
[१ उ.] गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों के समान वायुकायिक जीवों का भी कथन करना चाहिए। विशेषता यह है कि वायुकायिक जीवों में चार समुद्घात कहे गए हैं, यथा-वेदना-समुद्घात यावत् वैक्रियसमुद्घात। वे वायुकायिक जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत हो कर देश से समुद्घात करते हैं, इत्यादि सब पूर्ववत् यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में समुद्घात कर.......। वायुकायिक जीवों का उत्पाद ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक जानना चाहिए। भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर, (गौतमस्वामी) यावत् विचरते हैं। ॥ सत्तरहवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त॥
०००