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अट्ठमो उद्देसओ : 'दग'
अष्टम उद्देशक : (अधस्तन ) अप्कायिक सम्बन्धी रत्नप्रभा में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्पादि में उत्पन्न होने योग्य अप्कायिक जीव की उत्पत्ति और पुद्गल-ग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ?
१. आउकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहते, समोहन्नित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववज्जित्तए. ?
एवं जहा पुढविकाइओ तहा आउकाइओ वि सव्वकप्पेसु जाव ईसिपब्भाराए तहेव उववातेयव्वो। . [१ प्र.] भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी में मरण-समुद्घात करके सौधर्मकल्प में अप्कायिक-रूप में उत्पन्न होने के योग्य हैं....... इत्यादि प्रश्न ?
[१ उ.] गौतम ! जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में कहा, उसी प्रकार अप्कायिक जीवों के विषय में सभी कल्पों में यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक (पूर्ववत्) उत्पाद कहना चाहिए।
२. एवं जहा रयणप्पभआउकाइओ उववातिओ तहा जाव अहेसत्तमआउकाइओ उववाएयव्वो जाव ईसिपब्भाराए। सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति०।
॥सत्तरसमे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो॥१७-८॥ [२] रत्नप्रभापृथ्वी के अप्कायिक जीवों के उत्पाद के समान यावत् अध:सप्तमपृथ्वी के अप्कायिक जीवों तक का यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिए। __ हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कहकर (गौतमस्वामी) यावत् विचरते हैं। ॥ सत्तरहवाँ शतक : आठवाँ उद्देशक समाप्त।
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