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________________ ३४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भो देवाणुप्पिया ! हत्थिणापुर नगरं सब्भितरबाहिरियं आसिय जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति। [६] तदनन्तर एक दिन राजा शिव को रात्रि के पिछले पहर में (पूर्वरात्रि के बाद अपर रात्रि काल में) राज्य की धरा-कार्यभार का विचार करते हए ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हआ कि यह मेरे पर्व-पण्यों का प्रभाव है, इत्यादि तीसरे शतक के प्रथम उद्देशक में वर्णित तामलि-तापस के वृतान्त के अनुसार विचार हुआ—यावत् मैं पुत्र, पशु, राज्य, राष्ट्र, बल(सैन्य), वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर और अन्त:पूर इत्यादि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ। प्रचुर धन, कनक, रत्न, यावत् सारभूत द्रव्य द्वारा अतीव अभिवृद्धि पा रहा हूँ। तो क्या मैं पूर्वपुण्यों के फलस्वरूप यावत् एकान्तसुख का उपयोग करता हुआ विचरण करूँ? अत: अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि जब तक मैं हिरण्य आदि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ, यावत् जब तक सामन्त राजा आदि भी मेरे वश में (अधीन) हैं तब तक कल प्रभात होते ही जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मैं बहुत-सी लोढ़ी, लोहे की कडाही, कुड़छी और ताम्बे के बहुत से तापसोचित उपकरण (या पात्र) बनवाऊँ और शिवभद्र कुमार को राज्य पर स्थापित (राजगद्दी पर बिठा) करके और पूर्वोक्त बहुत-से लोहे एवं ताम्बे के तापसोचित भांड-उपकरण लेकर, उन तापसों के पास जाऊँ जो ये गंगातट पर वानप्रस्थ तापस हैं; जैसे कि-अग्निहोत्री, पोतिक (वस्त्रधारी) कौत्रिक (पृथ्वी पर सोने वाले) याज्ञिक, श्राद्धी (श्राद्ध कर्म करने वाले), खप्परधारी (स्थालिक), कुण्डिकाधारी श्रमण, दन्त-प्रक्षालक, उन्मजक, सम्मजक, निमजक, सम्प्रक्षालक, ऊर्ध्वकण्डुक, अध:कण्डुक, दक्षिणकूलक, उत्तरकूलक, शंखधमक (शंख फूंककर भोजन करने वाले), कूलधमक (किनारे पर खड़े होकर आवाज करके भोजन करने वाले), मृगलुब्धक, हस्तीतापस, जल से स्नान किये बिना भोजन नहीं करने वाले, पानी में रहने वाले, वायु में रहने वाले, पट-मण्डप में रहने वाले, बिलवासी, वृक्षमूलवासी, जलभक्षक, वायुभक्षक, शैवालभक्षक, मूलाहारी, कन्दाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, फलाहारी, बीजाहारी, सड़ कर टूटे या गिरे हुए कन्द, मूल, छाल, पत्ते, फूल और फल खाने वाले, दण्ड ऊँचा रखकर चलने वाले, वृक्षमूलनिवासी, मांडलिक, वनवासी, दिशाप्रोक्षी, आतापना से पंचाग्नि ताप तपने वाले (अपने शरीर को अंगारों से तपा कर काष्ठ-सा बना देने वाले) इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् जो अपने शरीर को काष्ठ-सा बना देते हैं। उनमें से जो तापस दिशाप्रोक्षक हैं, उनके पास मुण्डित होकर मैं दिक्प्रोक्षक-तापस-रूप प्रव्रज्या अंगीकार करूँ। प्रव्रजित होने पर इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण करूँ कि यावज्जीवन निरन्तर (लगातार) छठ-छठ (बेले-बेले) की तपस्या द्वारा दिक्चक्रवाल तपःकर्म करके दोनों भुजाएँ ऊँची रखकर रहना मेरे लिए कल्पनीय है, इस प्रकार का शिव राजा ने विचार किया। और फिर दूसरे दिन प्रातः सूर्योदय होने पर अनेक प्रकार की लोढ़ियाँ, लोहे की कड़ाही आदि तापसोचित भण्डोपकरण तैयार कराके कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा—हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर जल का छिड़काव करके स्वच्छ, (सफाई) कराओ, इत्यादि; यावत् कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की आज्ञानुसार कार्य करवा कर राजा से निवेदन किया। विवेचन—शिव राजा का तापसप्रव्रज्या लेने का संकल्प और तैयारी—प्रस्तुत छठे सूत्र में प्रतिपादित किया गया है कि शिव राजा ने धन-धान्य आदि की वृद्धि एवं अपार समृद्धि आदि देख कर अपने पूर्वकृत
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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