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________________ ६३६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [५ उ.] हाँ, गौतम! करते हैं। ६. सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जति.? जहा पाणातिवाएणं दंडओ एवं मुसावातेण वि। [६ प्र.] भगवन् ! वह क्रिया स्पृष्ट की जाती है या अस्पृष्ट की जाती है ? [६ उ.] गौतम! प्राणातिपात के दण्डक (आलापक) के समान मृषावाद-क्रिया का भी दण्डक कहना चाहिए। ७. एवं अदिण्णादाणेण वि, मेहुणेण वि, परिग्गहेण वि। एवं एए पंच दंडगा। [७] इसी प्रकार अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह (की क्रिया) के विषय में भी जान लेना चाहिए। इस प्रकार (ये कुल) पांच दण्डक हुए। विवेचन—प्राणातिपातादि पांच क्रियाएँ : स्वरूप तथा विश्लेषण प्रस्तुत प्रकरण में प्रणातिपातादि क्रियाएँ कार्यकरणभावसम्बन्ध की अपेक्षा से कर्म (पापकर्म) अर्थ में हैं। जीव जो भी प्राणातिपातादि क्रिया (कर्म) करते हैं, वह स्पृष्ट अर्थात् आत्मा का स्पर्श होकर की जाती है, अस्पृष्ट नहीं। अगर आत्मा से अस्पृष्ट ये क्रियाएँ की जाने लगें तो अजीव या मृतप्राणी के द्वारा भी की जाने लगेंगी। सभी जीवों की अपेक्षा नियमत: छह दिशा से की जाती हैं, किन्तु औधिक (सामान्य) जीव दण्डक में और एकेन्द्रिय जीवों में निर्व्याघात की अपेक्षा तो ये क्रियाएँ छहों दिशाओं से की जाती हैं। व्याघात की अपेक्षा से जब एकेन्द्रिय जीव, लोक के अन्त में रहे हुए होते हैं, तब ऊपर और आसपास की दिशाओं में अलोक होने से कर्म वर्गणाओं के आने की सम्भावना नहीं है। इसलिए वे यथासम्भव कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आए हुए कर्म (उपार्जित) करते हैं। शेष जीव लोक के मध्यभाग में होने से नियमतः छह दिशाओं से आए हुए कर्म उपार्जित करते हैं, क्योंकि लोक के मध्य में व्याघात नहीं होता। इस प्रकार प्राणातिपात आदि पांच पापकर्मों (क्रियाओं) के स्पृष्ट और अस्पृष्टविषयक पांच दण्डक हैं।' 'जाव अणाणुपुत्विकडा' : सूचित पाठ और अर्थ—यहाँ प्रथम शतक, छठे उद्देशक, सू. ७ के अनुसार 'पुट्ठा, कडा, अत्तकडा, आणपुव्विकडा' (अर्थात्-स्पृष्ट, कृत, आत्मकृत, आनुपूर्वीकृत) ये और इससे विपरीत-अस्पृष्ट, अकृत, अनात्मकृत, अनानूपूर्विकृत, ये पद सूचित हैं। तथा प्राणातिपात आदि पांच पापकर्मों के साथ प्रत्येक के पांच-पांच दण्डक सूचित किये गए हैं। इसका आशय यह है कि (१) ये क्रियाएँ जीव स्वयं करते हैं, बिना किये ये नहीं होती, (२) ये क्रियाएँ मन-वचन-काया से स्पृष्ट होती हैं, (३) ये क्रियाएँ करने से लगती हैं, बिना किये नहीं लगतीं, फिर भले ही ये क्रियाएँ मिथ्यात्व आदि किसी कारण से की जाती हैं । (४) ये क्रियाएँ स्वयं करने से (आत्मकृत) लगती हैं, ईश्वर, काल आदि दूसरे के करने से नहीं लगती। ५. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. २, पृ. ७८४ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) अ. ५, पृ. २६२५
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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