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सत्तरहवाँ शतक : उद्देशक - २
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कर्मबन्ध के अभाव में शरीर की उत्पत्ति न होने से वर्णादि का अभाव होता है । अतः अरूपी होकर जीव फिर रूपी नहीं हो सकता। सर्वज्ञ भगवान् महावीर ने अपने केवलज्ञानालोक में इस तत्व को इसी प्रकार देखा है।
कठिन शब्दार्थ --जाणामि विशेष रूप से जानता हूँ, पासामि सामान्य रूप से जानता (देखता) हूँ । बुज्झामि सम्यक् प्रकार से अवबोध करता हूँ, सम्यग्दर्शनयुक्त निश्चित ही जानता हूँ । अभिसमन्नागच्छामि- -समस्त पहलुओं से संगतिपूर्वक सर्वथा जानता हूँ । पण्णायति — सामान्य जन द्वारा भी जाना जाता है।
॥ सत्तरहवाँ शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७२५
(ख) भगवती (हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २६१४-२६१५
२. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७२५