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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! अहमेयं जाणामि, जाव जं णं तहागयस्स जीवस्स अरूविस्स अकम्मस्स अरागस्स अवेदस्स अमोहस्स अलेसस्स असरीरस्स ताओ विप्पमुक्कस्स णो एवं पन्नायति, तं जहा—कालत्ते वा जाव लुक्खत्ते वा, से तेणढेणं जाव चिट्ठित्त ए। सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥सत्तरसमे सए : बीओ उद्देसओ समत्तो॥१७-२॥ [१९ प्र.] भगवन् ! क्या वही जीव पहले अरूपी होकर, फिर रूपी आकार की विकुर्वणा करके रहने में समर्थ है ?
[१९ उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भंते ! क्या कारण है कि वह ... यावत् वैसा करके रहने में समर्थ नहीं है ?
[उ.] गौतम! मैं यह जानता हूँ, यावत् कि तथा-प्रकार के अरूपी, अकर्मी, अरागी, अवेदी, अमोही, अलेश्यी, अशरीरी और उस शरीर से विप्रमुक्त जीव के विषय में ऐसा ज्ञात नहीं होता कि जीव में कालापन यावत् रूक्षपन है। इस कारण, है गौतम ! वह देव पूर्वोक्त प्रकार से विकुर्वणा करने में समर्थ नहीं है। ___हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर (गौतम स्वामी) यावत् विचरते
विवेचन—प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. १८-१९) में दो प्रकार के सिद्धान्त को सर्वज्ञ प्रभु महावीर की साक्षी से प्रस्तुत किया गया है
(१) कोई भी जीव (विशेषतः देव) पहले रूपी होकर फिर विक्रिया से अरूपित्व को प्राप्त करके नहीं रह सकता।
(२) कोई भी जीव (विशेषतः देव) पहले अरूपी होकर बाद में विक्रिया से रूपी आकार बना कर नहीं रह सकता।
रूपी अरूपी क्यों नहीं हो सकता ?—कोई महर्द्धिक देव भी पहले रूपी (मूर्त) होकर फिर अरूपी (अमूर्त) कदापि नहीं हो सकता। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् ने इसी प्रकार इस तत्व को अपने केवलज्ञानालोक में देखा है। शरीरयुक्त जीव में ही कर्मपुद्गलों के सम्बन्ध से रूपित्व आदि का ज्ञान सामान्यजन को भी होता है। इसलिए रूपी, अरूपी नहीं हो सकता।
__ अरूपी भी रूपी क्यों नहीं हो सकता ?—कोई भी जीव, भले ही वह महर्द्धिक देव हो, पहले अरूपी (वर्णादिरहित) होकर फिर रूपी (वर्णादियुक्त) नहीं हो सकता, क्योंकि अरूपी जीव कर्मरहित, कायारहित, जन्ममरणरहित, वर्णादिरहित मुक्त (सिद्ध) होता है, और ऐसे मुक्त जीव को फिर से कर्मबन्ध नहीं होता। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. ३, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ७८०