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सत्तरहवाँ शतक : उद्देशक - २
बैठना आदि क्रियाएँ अशक्य बताई हैं ।"
धर्म, अधर्म और धर्माधर्म का विवक्षित अर्थ — धर्म शब्द से यहाँ सर्वविरति चारित्रधर्म, अधर्म शब्द से अविरति और धर्माधर्म शब्द से विरति - अविरति या देशविरति अर्थ विवक्षित है। दूसरे शब्दों में इन्हें संयम, असंयम और संयमासंयम भी कहा जा सकता है।
कठिन शब्दार्थ —— चक्किया— समर्थ है। आसइत्तए — बैठने में । तुयट्ठित्तए— करवट बदलने या लेटने में या सोने में।
अन्यतीर्थिक मत के निराकरणपूर्वक श्रमणादि में, जीवों में तथा चौवीस दण्डकों में बाल, पण्डित और बाल - पण्डित की प्ररूपणा
१०. अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति - ' एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासया बालपंडिया; जस्स णं एगपाणाए वि दंडे अनिक्खित्ते से णं एगंतबाले त्ति वत्तव्वं सिया' से कहमेयं भंते! एवं ?
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गोयमा ! जं णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव वत्तव्वं सिया, जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि — एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासगा बालपंडिया, जस्स णं एगपाणाए वि दंडे निक्खित्ते से णं नो एगंतबाले त्ति वत्तव्वं सिया ।
[१० प्र.] भगवन्! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि (हमारे मत में) ऐसा है कि श्रमण पण्डित हैं, श्रमणोपासक बाल पण्डित हैं और जिस मनुष्य ने एक भी प्राणी का दण्ड (वध) अनिक्षिप्त (छोड़ा हुआ नहीं) है, उसे 'एकान्त बाल' कहना चाहिए; तो हे भगवन् ! अन्यतीर्थिकों का यह कथन कैसे यथार्थ हो सकता है?
[१० उ.] गौतम! अन्यतीर्थिकों ने जो यह कहा है कि ' श्रमण पण्डित हैं यावत् 'एकान्त बाल कहा जा सकता है', उनका यह कथन मिथ्या है। मैं इस प्रकार कहता हूं, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि श्रमण पण्डित हैं, श्रमणोपासक बाल - पण्डित हैं, परन्तु जिस जीव ने एक भी प्राणी के वध को निक्षिप्त किया (त्यागा) है, उसे 'एकान्त बाल' नहीं कहा जा सकता; (अपितु उसे 'बाल - पण्डित' कहा जा सकता है)।
११. जीवा णं भंते! किं बाला, पंडिया, बालपंडिया ? गोयमा ! जीवा बाला वि, पंडिया वि, बालपंडिया वि ।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७२३
(ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ५, पृ. २६०७
२. वही भा. ५, पृ. २६०७
३. (क) वही, भा ५, पृ. २६०६
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७२३