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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ववरोवेइ–घात करता है। पवाडेइ-नीचे गिराता है। वीससाए स्वाभाविक रूप से। वृक्ष के मूल, कन्द आदि को हिलाने आदि से सम्बन्धित जीवों को लगने वाली क्रिया प्ररूपणा
१०. पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ?
गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पचालेति वा पवाडेति वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढें। जेसिं पि य णं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए जाव बीए निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा। . [१० प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष वृक्ष के मूल को हिलाए या नीचे गिराए तो उसको कितनी क्रियाएँ लगती
[१० उ.] गौतम! जब तक वह पुरुष वृक्ष के मूल को हिलाता या नीचे गिराता है, तब तक उस पुरुष को कायिकी से लेकर यावत् प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीरों से मूल यावत् बीज निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को भी कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं।
११. अहे णं भंते ! से मूले अप्पणो गरुययाए जाव जीवियाओ ववरोवेति तओ णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ?
गोयमा ! जावं च णं से मूले अप्पणो जाव ववरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चाहिं किरियाहिं पुढें। जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निव्वत्तिए जाव बीए निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव चउहिं० पुट्ठा। जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। जे वि य से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स उवग्गहे वटंति ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा।
। [११ प्र.] भगवन् ! यदि वह मूल अपने भारीपन के कारण नीचे गिरे, यावत् जीवों का हनन करे तो (ऐसी स्थिति में) उस मूल को हिलाने वाले और नीचे गिराने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ?
[११ उ.] गौतम! जब तक मूल अपने भारीपन के कारण नीचे गिरता है, यावत् अन्य जीवों का हनन करता है, तब तक उस पुरुष को कायिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से वह कन्द निष्पन्न हुआ है यावत् बीज निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को कायिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से मूल निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को कायिकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं। तथा जो जीव नीचे गिरते हुए मूल के स्वाभाविक रूप से उपकारक होते हैं, उन जीवों को भी कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं।
१२. पुरिसे णं भंते! रुक्खस्स कंदं पचालेइ. ?
गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे जाव पंचहिं किरियाहिं पुढें। जेसिं पि य णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निव्वत्तितए ते वि णं जीवा जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा।
१. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ५, पृ. २५९७ २. पाठान्तर—......." मूले निव्वत्तिते जाव बीए निव्वत्तिए।