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सोलहवां शतक : उद्देशक-६
५८५ कठिन शब्दार्थ-तालपिसायं ताड़ वृक्ष के समान लम्बा पिशाच। सुक्किलपक्खगं सफेद पांखों वाले। पुंसकोइलं-पुंस्कोकिल-पुरुषजाति का कोयल। दामदुगं—माला-युगल। सेयं-श्वेत। उम्मीवीयीसहस्स-कलियं-हजारों तरंगों और वीचियों (छोटी तरंगों) से कलित (व्याप्त)। ओवढियंचारों ओर से वेष्टित। परिवेढियं-बारंबार वेष्टित। अंतेणं-आंतों से, अथवा अंतरंगभागों से। हरिवेरुलियवण्णाभेणं-हरित (नील) वैडूर्यमणि के वर्ण के समान। आघवेइ-सामान्य-विशेषरूप से कथन करते हैं। पनवेइ-सामान्यरूप से प्रज्ञप्त करते हैं। परूवेई—प्रत्येक सूत्र का अर्थपूर्वक विवेचन करते हैं। दंसेइ—उसे सकल नय-युक्तियों से बतलाते हैं। निदंसेई—अनुकम्पा पूर्वक निश्चित वस्तुस्वरूप का पुनःपुनः कथन करते हैं या उदाहरण पूर्वक समझाते हैं। चाउवण्णाइण्णे—ज्ञानादिगुणों से आकीर्ण (व्याप्त) चातुवर्ण्य (चतुर्विध) संघ। उग्घाइए–नष्ट किया। ओराला-उदार। एक-दो भव से मुक्त होने वाले व्यक्तियों को दिखाई देने वाले १४ प्रकार के स्वप्नों का संकेत
___२२. इत्थी व पुरिसे वा सुविणंते एगं महं हयपंतिं वा गयपंतिं वा जाव उसभपंतिं वा पासमाणे पासति, दुरूहमाणे दुरूहति, दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव अंतं करेति।
[२२] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान् अश्वपंक्ति, गजपंक्ति अथवा यावत् वृषभ-पंक्ति का अवलोकन करता हुआ देखे, और उस पर चढ़ने का प्रयत्न करता हुआ चढ़े तथा अपने आपको उस पर चढ़ा हुआ माने ऐसा स्वप्न देख कर तुरन्त जागृत हो तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है।
२३. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं दामिणिं पाईणपडीणायतं दुहओ समुद्दे पुढे पासमाणे पासति, संवेल्लेमाणे संवेल्लेइ, संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेण जाव अंतं करे।
। [२३] कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में, समुद्र को दोनों ओर से छूती हुई, पूर्व से पश्चिम तक विस्तृत एक बडी रस्सी (गाय आदि को बांधने की रस्सी) को देखने का प्रयत्न करता हआ देखे. अपने दोनों हाथों से उसे समेटता हुआ समेटे, फिर अनुभव करे कि मैंने स्वयं रस्सी को समेट लिया है, ऐसा स्वप्न देखकर तत्काल जागृत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सभी दु:खों का अन्त करता है।
२४. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं रज्जु पाईणपडीणायतं दुहतो लोगंते पुढे पासमाणे पासति, छिंदमाणे छिंदइ, छिन्नमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव जाव अंतं करेइ। ___ [२४] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, दोनों ओर लोकान्त का स्पर्श की हुई तथा पूर्व-पश्चिम
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७११ २. 'जाव' पद सूचक पाठ—'नरपंतिं वा किन्नर-किंपुरिस-महोरग-गंधव्व त्ति।'