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________________ ५७० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देसं हव्वमागए। [९] जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी भगवान् गौतम स्वामी से यह (उपर्युक्त) बात कर रहे थे, इतने में ही वह देव (अमायी सम्यग्दृष्टि देव) शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचा। १०. तए णं से देवे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमंसति, २ एवं वदासी—'एवं खलु भंते ! महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे एगे मायिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नए देवे ममं एवं वदासी'परिणममाण पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया।' तए णं अहं तं मायिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नगं देवं एवं वदामि—परिणममाणा पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, णो अपरिणया। से कहमेयं भत्ते! एवं ?' [१०] उस देव ने आते ही श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन-नमस्कार किया और पूछा-भगवन् ! महाशुक्र कल्प में महासामान्य विमान में उत्पन्न हुए एक मायीमिथ्यादृष्टि देव ने मुझे इस प्रकार कहा परिणमते हुए पुद्गल अभी 'परिणत' नहीं कहे जा कर अपरिणत कहे जाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणत हो रहे हैं। इसलिए वे 'परिणत' नहीं, अपरिणत ही कहे जाते हैं। तब मैंने (इसके उत्तर में) उस मायीमिथ्यादृष्टि देव से इस प्रकार कहा—'परिणमते हुए पुद्गल परिणत' कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे पुद्गल परिणत हो रहे हैं, इसलिए परिणत कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, भगवन् इस प्रकार का मेरा कथन कैसा है ?' ११. 'गंगदत्ता !' ई समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वदासी—अहं पि णं गंगदत्ता० ! एवमाइक्खामि० ४ परिणममाणा पोग्गला जाव नो अपरिणया, सच्चमेसे अढे। [११ उ.] 'हे गंगदत्त ! ' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव को इस प्रकार कहा—'गंगदत्त' मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि परिणमते हुए पुद्गल यावत् अपरिणत नहीं, परिणत हैं, यह अर्थ (सिद्धान्त) सत्य है।' १२. तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियं एयमढं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, २ नच्चासन्ने जाव पज्जुवासइ। [१२] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यह उत्तर सुनकर और अवधारण करके वह गंगदत्त देव हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। फिर वह न अतिदूर और न अतिनिकट बैठकर यावत् भगवान् की पर्युपासना करने लगा। १३. तए णं समणे भगवं महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य जाव धम्म परिकहेति जाव आराहए भवति।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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