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________________ सोलहवां शतक : उद्देशक-५ ५६९ इस पर अमायीसम्यग्दृष्टि देव ने मायीमिथ्यादृष्टि देव से कहा—'परिणमते हुए पुद्गल 'परिणत' कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे परिणत हो रहे हैं, इसलिए ऐसे पुद्गल परिणत हैं अपरिणत नहीं।' इस प्रकार कहकर अमायीसम्यग्दृष्टि देव ने मायीमिथ्यादृष्टि देव को (युक्तियों एवं तर्कों से) प्रतिहत (पराजित) किया। इस प्रकार पराजित करने के पश्चात् अमायीसम्यग्दृष्टि देव ने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर अवधिज्ञान से मुझे देखा, फिर उसे ऐसा यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, उल्लूकतीर नामक नगर के बाहर एकजम्बूक नाम के उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यथायोग्य अवग्रह लेकर विचरते हैं। अतः मुझे (वहाँ जा कर) श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार यावत् पर्युपासना करके यह तथारूप (उपर्युक्त) प्रश्न पूछना श्रेयस्कर है। ऐसा विचार कर चार हजार सामानिक देवों के परिवार के साथ सूर्याभ देव के समान, -निनादित ध्वनिपर्वक. जम्बगीप के भरतक्षेत्र में उल्लकतीर नगर के एकजम्बक उद्यान में मेरे पास आने के लिए उसने प्रस्थान किया। उस समय (मेरे पास आते हुए) उस देव की तथाविध दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव (देवप्रभाव) और दिव्य तेज:प्रभा (तेजोलेश्या) को सहन नहीं करता हुआ, (मेरे पास आया हुआ) देवेन्द्र देवराज शक्र (उसे देखकर) मुझसे संक्षेप में आठ प्रश्न पूछकर शीघ्र ही वन्दना-नमस्कार करके यावत् चला गया। विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (८) में शक्रेन्द्र झटपट प्रश्न पूछ कर वापिस क्यों लौट गया? गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् द्वारा दिया गया सयुक्तिक समाधान प्रस्तुत किया गया। कठिन शब्दार्थ-मायि-मिच्छादिट्ठिउववन्नए—मायीमिथ्यादृष्टि रूप में उत्पन्न। अमायिसम्मद्दिट्ठिउववन्नए-अमायीसम्यग्दृष्टि रूप में उत्पन्न । पडिहणइ-प्रतिहत—पराभूत किया (निरुत्तर किया)। दिव्यं तेयलेस्सं असहमाणे : रहस्य—शक्रेन्द्र की भगवान् के पास से संक्षेप में प्रश्न पूछकर झटपट चले जाने की आतुरता के पीछे कारण उक्त देव की ऋद्धि, द्युति, प्रभाव, तेज आदि न सह सकना ही प्रतीत होता है। शक्रेन्द्र का जीव पूर्वभव में कार्तिक नामक अभिनव श्रेष्ठी था और गंगदत्त उससे पहले का (जीर्ण-पुरातन) श्रेष्ठी था। इन दोनों में प्राय: मत्सरभाव रहता था। यही कारण है कि पहले के मात्सर्यभाव के कारण गंगदत्त देव की ऋद्धि आदि शक्रेन्द्र को सहन न हुई। सम्यग्दृष्टि गंगदत्त द्वारा मिथ्यादृष्टिदेव को उक्त सिद्धान्तसम्मत तथ्य का भगवान् द्वारा समर्थन, धर्मोपदेश एवं भव्यत्वादि कथन ९. जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवतो गोयमस्स एयमटुं परिकहेति तावं च णं से देवे तं १. वियाहपण्णत्तिसत्तं भा. २ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ.७५६-७५७ २. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २५०१ (ख) भगवती अ. वृत्ति. पत्र ७०७ ३. वही अ. वृत्ति, पत्र ७०८
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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