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सोलहवाँ शतक : उद्देशक - ३
जा रहा है, उस ऋषि को धर्मान्तराय के सिवाय अन्य कोई क्रिया नहीं लगती ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं ।
विवेचन — राजगृह से विहार करके उल्लूकतीर नगर के बाहर एकजम्बूक उद्यान में गणधर गौतम द्वारा कायोत्सर्गस्थ भावितात्मा अनगार के अर्श-छेदक वैद्य को तथा उक्त अनगार को लगने वाली क्रिया के विषय में भगवान् से पूछा गया प्रश्न और उसका उत्तर प्रस्तुत ६ सूत्रों (सू. ५ से १० तक) में अंकित है ।
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अर्श-छेदन में लगने वाली क्रिया — दिन के पिछले भाग में कायोत्सर्ग में स्थित न होने से हस्तादि अंगों को सिकोड़ना-पसारना कल्पनीय है। कायोत्सर्ग में रहे हुए उस भावितात्मा अनगार की नासिका में लटकते
अर्श को देख कर कोई वैद्य उक्त अनगार को भूमि पर लिटाकर धर्मबुद्धि से अर्श को काटे तो उस वैद्य को सत्कार्य - प्रवृत्तिरूप शुभ क्रिया लगती है, किन्तु लोभादिवश अर्श-छेदन करे तो उसे अशुभ क्रिया लगती है । जिस साधु के अर्श को छेदा जा रहा है, उसे निर्व्यापार होने के कारण एक धर्मान्तरायक्रिया के सिवाय और कोई क्रिया नहीं लगती । शुभध्यान में विच्छेद (अन्तराय) पड़ने से अथवा अर्श-छेदन के अनुमोदन से उसे धर्मान्तरायरूप क्रिया लगती है।
. कठिन शब्दार्थ — पुरत्थिमेणं-दिवस के पूर्वभाग में पूर्वाह्न में । अवड्ढं दिवसं—– अपार्द्ध दिवस तक । पच्चत्थिमेणं—दिवस के पश्चिम ( पिछले भाग में। अंसियाओ—– अर्श, चूर्णिकार के अनुसार जो नासिका पर लटक रहा हो। अदक्खु–देखा । ईसिं पाडेह— उस ऋषि को अर्श काटने के लिए भूमि पर लिटाता है । नन्नत्थ — इसके सिवाय । ३
॥ सोलहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त ॥
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) भा. १ पृ. ७५१-७५२ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७०४
३. वही, अ. वृत्ति, पत्र ७०४
उल्लूकतीर नगर वर्तमान में 'उल्लूवेड़िया' (वर्द्धमान के निकट) पश्चिमबंगाल में है, सम्भवतः वही हो ।
—सं.