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सोलहवाँ शतक : उद्देशक - २
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अवग्रह : प्रकार और स्वरूप — अवग्रह का अर्थ है— उस स्थान के स्वामी (मालिक) से जो अवग्रह स्वीकार किया जाता है । वह क्रमशः पांच प्रकार का होता है । यथा— (१) देवेन्द्रावग्रह शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र इन दोनों का अवग्रह- स्वामित्व क्रमशः दक्षिणलोकार्द्ध और उत्तरलोकार्द्ध में है । अतः उनकी आज्ञा लेना देवेन्द्रावग्रह है । (२) राजावग्रह - भरतादि क्षेत्रों में छह खण्डों पर चक्रवर्ती का, तीन खंडों पर वासुदेव का तथा विभिन्न जनपदों पर अमुक-अमुक शासक या मन्त्री का अवग्रह होता है । (३) गाथापतिअवग्रह —— माण्डलिकादि का अपने अधीनस्थ देश पर अवग्रह होता है । (४) सागारिक - अवग्रह — सागारिकगृहस्थ का अपने घर या मकान पर अवग्रह होता है । (५) साधर्मिक - अवग्रह — समान धर्म आचार वाला साधु वर्ग परस्पर साधर्मिक कहलाता है। शेष काल में एक मास और चातुर्मास में चार मास तक पांच-पांच कोस तक के क्षेत्र में साधर्मिकावग्रह होता है । ढाई-ढाई कोस तक उत्तर-दक्षिण में तथा ढाई कोस तक पूर्व-पश्चिम में, यों ५ कोस तक का अवग्रह होता है । अवग्रह पारिभाषिक शब्द है । यह शब्द विशेषतः साधु-साध्वियों द्वारा ठहरने के स्थान आदि में स्वामी या संरक्षक से अवग्रह-ग्रहण करने की अनुज्ञा लेने या याचना करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है ।
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कठिन सब्दार्थ- वज्जपाणि— वज्रपाणि——– जिसके हाथ में वज्र हो । केवलकप्पं— केवलकल्प, सम्पूर्ण । आभोएमाणे — उपयोग लगाते हुए । उग्गहे — अवग्रह — स्वामी से ग्रहण करना । " शक्रेन्द्र की सत्यता, सम्यग्वादिता, सत्यादिभाषिता, सावद्य - निरवद्यभाषिता, एवं भवसिद्धिकता आदि के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर
१२. भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वं. २ त्ता एवं वयासीभंते! सक्के देविंदे देवराया तुब्भे एवं वदति सच्चे णं एसमट्ठे ?
हंता, सच्चे ।
[१२ प्र.] भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा— भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र ने आप से पूर्वोक्त रूप से अवग्रह सम्बन्धी जो अर्थ कहा, क्या वह सत्य है ?
[१२ उ.] हाँ, गौतम ! वह अर्थ सत्य है
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१३. सक्के णं भंते ! देविंदे देवराया किं सम्मावादी, मिच्छावादी ?
गोयमा ! सम्मावादी, नो मिच्छावादी ।
[ १३ प्र.] भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र सम्यग्वादी है अथवा मिथ्यावादी है ?
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७००-७०१
(ख) भगवती, (हिन्दीविवेचन ) भा. ५ पृ. २५२१
२. (क) वही, पृ. २५२०
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७००