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सोलहवां शतक : उद्देशक-१
५४९ किया गया है। नैरयिकों और देवों को जन्म से प्राप्त भवप्रत्यय वैक्रियशरीर होता है। जबकि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों
और मनुष्यों में, जिन्हें वैक्रियशरीर बनाने की शक्ति प्राप्त हुई हो, उन्हें लब्धिप्रत्यय वैक्रियशरीर होता है। वायुकाय को वैक्रियशक्ति प्राप्त होने से उसके भी वैक्रियशरीर होता है।
आहारकशरीर संयमी मुनियों के ही होता है, इसलिए मुख्य प्रश्न मनुष्य के विषय में ही करना चाहिए। संयत जीवों में अविरति का अभाव होने पर भी उनमें प्रमादरूप अधिकरण हो सकता है।'
इन्द्रिय और योग की अपेक्षा से भी अधिकरणी और अधिकरण-विषयक कथन शरीर की तरह ही समझना चाहिए।
___ यहाँ यह ध्यान रखना है, जिस जीव में जितनी एवं जो इन्द्रियां अथवा जितने योग हों उतने एवं वे ही यथायोग्य कहने चाहिए। यहाँ प्रत्येक प्रश्न पहले सामान्य जीवसमूह की अपेक्षा से और फिर दण्डकों के क्रम से किया गया है।
॥सोलहवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त॥
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१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९९
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २५१६ २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ७४६-७४७ ३. वही, पृ. ७४६-७४७