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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आत्मा-पर- तदुभय-प्रयोगनिर्वर्तित अधिकरण — हिंसादि पापकार्यों में स्वयं प्रवृत्ति करने वाले, मन आदि के व्यापार (प्रयोग) से निर्वर्तित-निष्पादित अधिकरण — आत्मप्रयोगनिर्वर्तित कहलाता है। दूसरों को हिंसादि पाप-कार्यों में प्रवृत्त कराने से उत्पन्न वचनादि अधिकरण परप्रयोग- निर्वर्तित कहलाता है और आत्मा के द्वारा दूसरों को प्रवृत्ति कराने के द्वारा उत्पन्न हुआ अधिकरण ' तदुभय-प्रयोगनिर्वर्तित' कहलाता है। स्थावर आदि जीवों में वचनादि का व्यापार नहीं होता, तथापि उनमें अविरतिभाव की अपेक्षा से परप्रयोग- निर्वर्तित अधिकरण कहा गया है। ५४६ शरीर, इन्द्रिय एवं योगों को बांधते हुए जीवों के विषय में अधिकरणी-अधिकरण-विषयक प्ररूपणा १८. कति णं भंते! सरीरगा पन्नता ? गोयमा ! पंच सरीरगा पन्नत्ता, तं जहा - ओरालिए जाव कम्मए । [१८ प्र.] भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [१८ उ.] गौतम ! शरीर पांच प्रकार के कहे गए हैं यथा— औदारिक यावत् कार्मण । १९. कति णं भंते! इंदिया पत्रत्ता ? गोयमा ! पंच इंदिया पन्नत्ता, तं जहा – सोतिंदिए जाव फासिंदिए । [१९. प्र.] भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? [१९ उ.] गौतम ! इन्द्रियाँ पांच कही गई है, यथा— श्रोत्रेन्द्रिय यावत स्पर्शेन्द्रिय । २०. कतिविहे णं भंते! जोए पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे जो पन्नत्ते, तं जहा—मणजोए वइजोए कायजोए ? [२० प्र.] भगवन् ! योग कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [२० उ. ] गौतम ! योग तीन प्रकार के कहे गए हैं यथा— –मनोयोग, वचनयोग और काययोग । २१. [१] जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी, अधिकरणं ? गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि । [२१-१ प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर को बांधता (निष्पन्न करता ) हुआ जीव अधिकरणी है या अधिकरण है ? [२१ - १ उ.] गौतम ! वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है । १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९९ (ख) भगवती, (हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २५१२
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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