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सोलहवां शतक : उद्देशक-१
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कठिन शब्दार्थ अयं लोहे को, अयकोटेंसि—लोहा तपाने की भट्टी में। उव्विहमाणेपव्विहमाणे—ऊँचा-नीचा करते हुए। पुढें—स्पृष्ट। णिव्वत्तिए-निष्पन्न (निर्वर्तित)-बनी हुई। इंगालकड्ढणी-अंगारे निकालने की लोहे की छड़ (यष्टि)। भत्था-धमण। उक्खिवमाणेणिक्खिवमाणे-निकालते और डालते या रखते-उठाते। चम्मेढे-घन। मुट्ठिए-हथौड़ा। अधिकरणिखोडी—एहरन का लकड़ा। उदगदोणी—पानी की कुण्डी। अधिकरणसाला-लुहारशाला।' जीव और चौवीस दण्डकों में अधिकरणी-अधिकरण, साधिकरणी-निरधिकरणी, आत्माधिकरणी आदि तथा आत्मप्रयोगनिवर्तित आदि अधिकरणसम्बन्धी निरूपण
९.[१] जीवे णं भंते ! किं अधिकरणी, अधिकरणं ? गोयमा ! जीवे अधिकरणी वि, अधिकरणं पि। [९-१ प्र.] भगवन् ! जीव अधिकरणी है या अधिकरण है ?
[९-१ उ.] गौतम ! जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है। . [२] से केणढेणं भंते। एवं वुच्चति 'जीवे अधिकरणी वि, अधिकरणं पि' ?
गोयमा ! अविरतिं पडुच्च, से तेणठेणं जाव अधिकरणं पि। [९-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से यह कहा जाता है कि जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है? [९-२ उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है। १०. नेरतिए णं भंते ! किं अधिकरणी, अधिकरणं ? गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि। एवं जहेव जीवे तहेव नेरइए वि। [१० प्र.] भगवन् नैरयिक जीव अधिकरणी है या अधिकरण है ?
[१०. उ.] गौतम ! वहअधिकरणी भी है और अधिकरण भी है। जिस प्रकार जीव (सामान्य) के विषय में कहा, उसी प्रकार नैरयिक के विषय में भी जानना चाहिए।
११. एवं निरंतरं जाव वेमाणिए। [११.] इसी प्रकार लगातार वैमानिक तक जानना चाहिए। १२. [१] जीवे णं भंते ! किं साहिकरणी, निरधिकरणी ? गोयमा ! साहिकरणी, नो निरहिकरणी।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९७
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २५०७