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पढमो उद्देसओ : अहिगरणी
प्रथम उद्देशक : अधिकरणी अधिकरणी में वायुकाय की उत्पत्ति और विनाश सम्बन्धी निरूपण
२. तेण कालेणं तेण समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासि
(२) उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा
( ३.) अत्थि णं भंते ! अधिकरणिंसि वाउयाए वक्कमइ ? हंता, अत्थि। (३ प्र.) भगवन् ! क्या अधिकरणी (एहरन) पर (हथड़ा मारते समय) वायुकाय उत्पन्न होता है? (३ उ.) हाँ गौतम ! (वायुकाय उत्पन्न) होता है। ४. से भंते! किं पुढे उद्दाइ, अपुढे उद्दाइ ? गोयमा! पुढे उद्दाइ, नो अपुढे उद्दाइ।
(४ प्र.) भगवन् ! उस (वायुकाय) का (किसी दूसरे पदार्थ के साथ) स्पर्श होने पर वह मरता है या बिना स्पर्श हुए ही मर जाता है?
(४ उ.) गौतम ! उसका दूसरे पदार्थ के साथ स्पर्श होने पर ही वह मरता है, बिना स्पर्श हुए नहीं मरता। ५. से भंते ! किं ससरीरे निक्खमइ, असरीरे निक्खमइ ? एवं जहा खंदए (स. २ उ. १ सु. ७ (३)) जाव से तेणढेणं जाव असरीरे निक्खमति।
(५ प्र.) भगवन् ! वह (मृत वायुकाय) शरीरसहित (भवान्तर में निकल कर) जाता है या शरीररहित जाता है?
(५ उ.) गौतम! इस विषय में (द्वितीय शतक, प्रथम उद्देशक सू. ७/३ में उक्त) स्कन्दक-प्रकरण के अनुसार, यावत्-शरीर-रहित होकर नहीं जाता, (यहाँ तक) जानना चाहिए।
विवेचन—प्रश्न, अन्तःप्रश्न : आशय-तृतीयसूत्रगत प्रश्न का आशय यह है कि एहरन पर हथौड़ा मारते समय एहरन और हथौड़े के अभिघात से वायुकाय उत्पन्न होता है या बिना अभिघात के ही होता है? समाधान है—अभिघात से उत्पन्न होता है, और वह वायुकाय अचित्त होता है, किन्तु उससे सचित्त वायु की हिंसा होती है। अर्थात्-उत्पन्न होते समय वह अचित्त होता है, पीछे वह सचित्त हो जाता है।