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________________ ५३४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अर्थात्-चारित्र अंगीकार करने के समय से लेकर मरण-पर्यन्त निरन्तर विधिपूर्वक निरतिचार संयम का परिपालन करना (चारित्र की) आराधना की गई है।' चारित्रप्राप्ति के अठारह भवों की संगति—विमलवाहन राजा (गोशालक के जीव) के चारित्रप्राप्ति (प्रतिपत्ति) के भव, अग्निकुमार देवों को छोड़ कर भवनपति और ज्योतिष्कदेवों के विराधनायुक्त भव दस कहे हैं, तथा अविराधनायुक्त (आराधनायुक्त) भव सौधर्मकल्प से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक सात और आठवाँ सिद्धिगमन रूप अन्तिम भव; यों ८ भव होते हैं । अर्थात्-गोशालक के विराधित और अविराधित दोनों को मिलाने से १८ भव होते हैं, किन्तु सिद्धान्त यह है कि 'अट्ठभवाउ चरित्ते' इस कथनानुसार चारित्रप्राप्ति आठ भव तक ही होती है। फिर इस पाठ की संगति कैसे होगी? इस विषय में समाधान इस प्रकार है कि यहाँ दस भव जो चारित्र-विराधना के बतलाए हैं, वे द्रव्यचारित्र की अपेक्षा से समझना चाहिए। अर्थात्—उन भवों में उसे भावचरित्र की प्राप्ति नहीं हुई थी। चारित्र-क्रिया की विराधना होने से उसे विराधक बतलाया है। जैसे अभव्यजीव चारित्र-क्रिया के आराधक होकर ही नौ ग्रैवेयक तक जाते हैं, किन्तु उन्हें वास्तविक (भाव) चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार यहाँ भी दस भवों में चारित्र की प्राप्ति, द्रव्च चारित्र की प्राप्ति समझनी चाहिए। इस प्रकार समझने से कोई भी सैद्धान्तिक आपत्ति नहीं आती। यही कारण है कि चारित्र-विराधना के कारण उसकी असुरकुमारादि देवों में उत्पत्ति हुई, वैमानिकों में नहीं। कठिन शब्दार्थ-सत्थवझे-शस्त्रवध्य-शस्त्र से मारे जाने योग्य। दाहवक्कंतीए–दाह-ज्वर की वेदना से। खयहर-विहाणाइं—खेचर जीवों के विधान-भेद। अणेगसय-सहस्सखुत्तो-अनेक लाख वार। एगखुराणं—एक खुर वाले अश्व आदि में। दुखुराणं-दो खुर वाले गाय आदि में। गंडीपयाणंगण्डीपदों में हाथी आदि में । सणहप्पयाणं—सिंह आदि सनख (नखसहित) पैर (पंजे) वाले जीवों में। रुक्खाणं-वृक्षों में । वृक्ष दो प्रकार के होते हैं—एक अस्थिक (गुठली) वाले जैसे आम, नीम आदि और बहुबीजक (अनेक बीज वाले) जैसे—तिन्दुक आदि। उस्सन्नं—बहुलता से, अधिकांश रूप से, प्रायः। अंतोखरियत्ताए–नगर के भीतर वेश्या (विशिष्ट वेश्या) के रूप में। बाहिं खरियत्ताए-नगर के बाहर की वेश्या (सामान्य वेश्या) के रूप में । उस्साणं-अवश्याय—ओस के जीवों में। दारियत्ताए-कन्या के रूप में। परिरूवएणं सुक्केणं—अनुरूप (उचित) शुल्क (द्रव्यदान) से। तेल्लकेला–तेल का भाजन (कुप्पी)। चेलपेडा-वस्त्र की पेटी-सन्दूक। कुलघरं—पितृगृह को। णिजमाणी—ले जाई जाती हुई। दाहिणिल्लेसु-दक्षिण दिशा के, दक्षिण-निकाय के। केवलं बोहिं—सम्यक्त्व। विराहिय-साम्मण्णेजिसने चारित्र की विराधना की। गोशालक का अन्तिम भव—महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ केवली के रूप में मोक्षगमन १४८. से णं ततोहितो अणंतरं चयं चयित्ता महाविदेहे वासे जाइं इमाइ कुलाइं भवंति–अड्डाई १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९५ २. वही, पत्र ६९५ ३. वही, पत्र ६९३, ६९५
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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