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________________ पन्द्रहवाँ शतक ५३३ मनुष्य, विराधक होकर असुरकुमार आदि देवों में तथा, आराधक मानव होकर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, ब्रह्मलोक, महाशुक्रं, आनत और आरण आदि देवलोकों में क्रमशः मनुष्य होकर उत्पन्न होने की, और अन्त में सर्वार्थसिद्ध महाविमान में उत्पन्न होने की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार गोशालक के भावी भवभ्रमण का कथन किया गया है । विमलवाहन राजा का विभिन्न नरकों में उत्पन्न होने का कारण और क्रमअसंज्ञी आदि जीवों की रत्नप्रभादि नरकों में उत्पत्ति होने के सम्बन्ध में निम्नोक्त गाथा द्रष्टव्य हैअसण्णी खलु पढमं, दोच्चं च सिरीसिवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउत्थिं, उरगा पुण पंचमिं पुढविं ॥ छट्टि च इत्थियाओ, मच्छा मणुया य सत्तमिं पुढविं ॥ अर्थात् — असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक ही जा सकते हैं। सरीसृप द्वितीय, पक्षी तृतीय, सिंह चतुर्थ, सर्प पंचम, स्त्री षष्ठ और मत्स्य तथा मनुष्य सप्तम नरक तक जाते हैं। खेचर पक्षियों के प्रकार और लक्षण - ( १ ) चर्म पक्षी - चर्म की पंखों वाले पक्षी, यथा चमगादड़ आदिं । ( १ ) रोम (लोम ) पक्षी — रोम की पांखों वाले पक्षी । ये दोनों प्रकार के पक्षी मनुष्य क्षेत्र के भीतर और बाहर होते हैं, जैसे हंस आदि । (३) समुद्गक पक्षी – जिनकी पांखें हमेशा पेटी की तरह बन्द रहती हैं । ( ४ ) वितत पक्षी - जिनकी पांखें हमेशा विस्तृत — खुली हुई रहती हों। ये दोनों प्रकार के पक्षी मनुष्यक्षेत्र से बाहर ही होते हैं। - इस प्रकरण में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पत्ति: सान्तर या निरन्तर ? यहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चजीवों में अनेक लाख भवों तक पुन: पुन: उत्पन्न होने का जो कथन किया गया है, वह सान्तर समझना चाहिए, निरन्तर नहीं; क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च या मनुष्य के भव निरन्तर सात या आठ से अधिक नहीं किये जा सकते हैं। जैसे कि कहा गया है 'पंचिंदिय - तिरिय - नरा सत्तट्ठभवा भवग्गहेण' अर्थात् — पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च या मनुष्य के निरन्तर सात या आठ भव ही ग्रहण किये जा सकते हैं । चारित्राराधना का स्वरूप — चारित्र - आराधना का स्वरूप एक आचार्य ने इस प्रकार बताया है आराहणा य एत्थं चरण- पडिवत्ति समयओ पभिई । आमरणंतमजस्सं संजम परिपालणं विहिणा ॥ १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २, (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) पृ. ७३७ से ७४१ त २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९३ ३. वही, पत्र ६९३ ४. वही, पत्र ६९३
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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