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________________ ५३० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बार भी शर्कराप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् काल करके दूसरी बार पुन:सरीसृपों में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी की उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिक रूप से उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् निकल कर संज्ञीजीवों में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्र द्वारा मारा जाकर यावत् काल करके असंज्ञीजीवों में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्राघात से यावत् काल करके दूसरी बार इसी रत्नप्रभापृथ्वी में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिक रूप में उत्पन्न होगा। वह वहाँ से निकल कर जो ये खेचरजीवों के भेद हैं, जैसे कि चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और विततपक्षी, उनमें अनेक लाख बार मर-मर कर बार-बार वहीं उत्पन्न होता रहेगा। सर्वत्र शस्त्र से मारा जा कर दाह-वेदना से काल के अवसर में काल करके जो ये भुजपरिसर्प के भेद हैं, जैसे कि -गोह, नकुल (नेवला) इत्यादि प्रज्ञापना-सूत्र के प्रथम पद के अनुसार (उन सभी में उत्पन्न होगा,) यावत् जाहक आदि चौपाये जीवों में अनेक लाख बार मर कर बार-बार उन्हीं में उत्पन्न होगा। शेष सब खेचरवत् जानना चाहिए, यावत् काल करके जो ये उर:परिसर्प के भेद होते हैं, जैसे कि सर्प, अजगर, आशालिका और महोरग आदि इनमें अनेक लाख बार मर-मर कर बार-बार इन्हीं में उत्पन्न होगा। यावत् वहाँ से काल करके जो ये चतुष्पदजीवों में भेद हैं, जैसे कि एक खुर वाला, दो खुर वाला गण्डीपद और सनखपद, इनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् काल करके जो ये जलचरजीव-भेद हैं, जैसे कि मत्स्य, कच्छप यावत् सुंसुमार इत्यादि, उनमें लाख बार उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से यावत् काल करके जो ये चतुरिन्द्रिय जीवों के भेद हैं, जैसे कि—अन्धिक, पौत्रिक इत्यादि, प्रज्ञापनासूत्र के प्रथमपद के अनुसार यावत् गोमय-कीटों में अनेक लाख बार उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से यावत् काल करके जो ये त्रीन्द्रियजीवों के भेद हैं, जैसे कि—उपचित यावत् हस्तिशौण्ड आदि, इनमें अनेक लाख बार मर कर पुन:पुनः उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् काल करके जो ये द्वीन्द्रिय जीवों के भेद हैं, जैसे कि—पुलाकृमि यावत् समुद्दलिक्षा इत्यादि, इनमें अनेक लाख बार मर मर कर, पुन:पुनः उन्हीं में उत्पन्न होगा। ___फिर वहाँ से यावत् काल कर जो ये वनस्पति के भेद हैं, जैसे कि वृक्ष, गुच्छ यावत् कुहुना इत्यादि; इनमें अनेक लाख बार मर-मर कर यावत् पुन:पुनः इन्हीं में उत्पन्न होगा। विशेषतया कटुरस वाले वृक्षों और बेलों में उत्पन्न होगा। सभी स्थानों में शस्त्राघात से वध होगा। फिर वहाँ से यावत् काल कर जो ये वायुकायिक जीवों के भेद हैं, जैसे कि—पूर्ववायु, यावत् शुद्धवायु इत्यादि इनमें अनेक लाख बार मर कर पुन: पुन: उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से काल कर जो ये तेजस्कायिक जीवों के भेद हैं, जैसे कि—अंगार यावत् सूर्यकान्तमणिनिःसृत अग्नि इत्यादि, उनमें अनेक लाख बार मर-मर कर पुनः पुनः उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से यावत् काल करके जो ये अप्कायिक जीवों के भेद हैं, यथा—ओस का पानी, यावत् खाई का पानी इत्यादि; उनमें अनेक लाख बार विशेषतया खारे पानी तथा खाई के पानी में उत्पन्न होगा। सभी स्थानों में शस्त्र द्वारा घात होगा। वहाँ से यावत् काल करके जो ये पृथ्वीकायिक जीवों के भेद हैं, जैसे कि—पृथ्वी, शर्करा (कंकड़) यावत् सूर्यकान्तमणि; उनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा, विशेषतया खर-बादर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होगा। सर्वत्र शस्त्र से वध होगा।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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