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पन्द्रहवाँ शतक
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नीहरणं करेजाह।" एवं वदित्ता कालगए।
[१०९] इसके पश्चात् जब सातवीं रात्रि व्यतीत हो रही थी, तब मंखलिपुत्र गोशालक को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। उसके साथ ही उसे इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ—'मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, तथापि मैं जिन-प्रलापी (जिन कहता हुआ) यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरा हूँ। मैं मंखलिपुत्र गोशालक श्रमणों का घातक, श्रमणों को मारने वाला, श्रमणों का प्रत्यनीक (विरोधी), आचार्य-उपाध्याय का अपयश करने वाला, अवर्णवादकर्ता और अपकीर्तिकर्ता हूँ। मैं अत्यधिक असद्भावनापूर्ण मिथ्यात्वाभिनिवेश से, अपने आपको, दूसरों को तथा स्वपर-उभय को व्युद्ग्राहित करता हुआ, व्युत्पादित (मिथ्यात्व-युक्त) करता हुआ विचरा, और फिर अपनी ही तेजोलेश्या से पराभूत होकर, पित्तज्वराक्रान्त तथा दाह से जलता हुआ सात रात्रि के अन्त में छद्मस्थ अवस्था में ही काल करूंगा। वस्तुतः श्रमण भगवान् महावीर ही जिन हैं, और जिनप्रलापी है, यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करते हैं।
(गोशालक ने अन्तिम समय में) इस प्रकार सम्प्रेक्षण (स्वयं का आलोचन) किया। फिर उसने आजीविक स्थविरों को (अपने पास) बुलाया, अनेक प्रकार की शपथों से युक्त (सौगंध दिला) करके इस प्रकार कहा—'मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, फिर भी जिनप्रलापी तथा जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरा। मैं वही मंखलीपत्र गोशालक एवं श्रमणों को घातक हँ, (इत्यादि वर्णन पूर्ववत) यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाऊंगा। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ही वास्तव में जिन हैं, जिनप्रलापी हैं, यावत् स्वयं को जिन शब्द से प्रकट करते हुए विहार करते हैं। अतः हे देवानप्रियो ! मुझे कालधर्म को प्राप्त जान कर मेरे बाएं पैर को मूंज की रस्सी से बांधना और तीन बार मेरे मुंह में थूकना। तदनन्दर श्रृंगाटक यावत् राजमार्गों में इधर-उधर घसीटते हुए उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहना—"देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' नहीं है, किन्तु वह जिनप्रलापी यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकाशित करता हुआ विचरा है। यह श्रमणों का घात करने वाला मंखलिपुत्र गोशालक है, यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल-धर्म को प्राप्त हआ है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी ही वास्तव में जिन हैं. जिनप्रलापी हैं यावत जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं।" इस प्रकार महती अऋद्धि (बड़ी विडम्बना) और असत्कार (असम्मान) पूर्वक मेरे मृत शरीर का नीहरण (बाहर निष्क्रमण) करना; यों कहकर गोशालक कालधर्म को प्राप्त हुआ।
विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (१०१) में गोशालक को मरण की अन्तिम (सातवीं) रात्रि में सम्यक्त्व प्राप्त हुआ और उसने अपनी अर्जित प्रतिष्ठा एवं मानापमान की परवाह न करते हुए आजीविक स्थविरों के समक्ष अपनी वास्तविकता प्रकट करके तदनुसार अप्रतिष्ठापूर्वक मरणोत्तर क्रिया करने का किया गया निर्देश अंकित है।
ऐसी सद्बुद्धि पहले क्यों नहीं, पीछे क्यों ?—गोशालक को भगवान् महावीर के पास रहते हुए तथा शिष्य कहलाने के बावजूद भी ऐसी सद्बुद्धि पहले नहीं आई, उसका कारण घोर मिथ्यात्वमोह का उदय था। फलत: मिथ्यात्वरूपी भयंकर शत्रु के कारण ही पूर्वोक्त स्थिति हो गई थी। जब सम्यक्त्वरत्न प्राप्त हुआ, तब सारी स्थिति ही पूर्णतया पलट गई। आजीविक-स्थविरों के समक्ष उसने अब वास्तविक स्थिति प्रकट कर