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________________ पन्द्रहवाँ शतक ५०५ गुठली देखी थी, वह आम की छाल थी, गुठली नहीं। गुठली तो व्रती पुरुषों के लिए अकल्पनीय है। किन्तु आम की छाल त्वक् पानक-रूप होने से निर्वाण गमनकाल में यह अवश्य ग्राह्य होती है । हल्ला के आकार का कथन करते-करते मद्यमद में विह्वल होकर गोशालक ने जो उद्गार निकाले थे 'वीरो ! वीणा बजाओ।' किन्तु यह उन्मत्तवत् प्रलाप सुन कर भी अयंपुल के मन में गोशालक के प्रति अविश्वास या अश्रद्धाभाव नहीं जागा। क्योंकि सिद्धि प्राप्त करने वालों के लिए चरम गान आदि दोषरूप नहीं हैं, इस प्रकार की बात उसके दिमाग में पहले से ही स्थविरों ने ठसा दी थी। इस कारण उसकी बुद्धि विमोहित हो गई थी। कठिन शब्दार्थ—अंबकूणग-एडावणट्ठयाए-आम्रफल की गुठली को फैंक देने के लिए।संगारंसंकेत । एगंतमंते—एकान्त में, एक ओर। हल्ला तृणगोवालिका कीट-विशेष । राजस्थान में 'बामणी' नाम से प्रसिद्ध। एहि एतो—इधर आ। प्रतिष्ठा-लिप्सावश गोशालक द्वारा शानदार मरणोत्तर क्रिया करने का शिष्यों को निर्देश १०८. तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते अप्पणो मरणं आभोएइ, अप्प० आ० २ आजीविए थेरे सद्दावेइ, आ० स० २ एवं वदासि—"तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणित्ता सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणेह, सु० ण्हा० २ पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाइं लूहेह, गा० लू० २ सरसेणं गोसीसेणं चंदणेणं गायाइं अणुलिंपह, सर० अ० २ महरिहं हंसलक्खणं पडसाडगं नियंसेह, मह० नि० २ सव्वालंकारविभूसियं करेह, स० क० २ पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहह, पुरि० दुरू० २ सावत्थीए नगरीए सिंघाडग० जाव पहेसु महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वदह'एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसदं पगासेमाणे विहरित्ता इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसाए तित्थगराणं चरिमतित्थगरे सिद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।' इड्डिसक्कारसमुदएणं ममं सरीरगस्स णीहरणं करेह।" तए णं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एतमढं विणएणं पडिसुणेति। [१०८] तदनन्तर मंखलिपुत्र गोशालक ने अपना मरण (निकट भविष्य में) जान कर आजीविक स्थविरों को अपने पास बुलाया और इस प्रकार कहा—हे देवानुप्रियो ! मुझे कालधर्म को प्राप्त हुआ जान कर तुम लोग मुझे सुगन्धित गन्धोदक से स्नान कराना, फिर रोंएदार कोमल गन्धकाषायिक वस्त्र (तौलिये) से मेरे शरीर को पोंछना, तत्पश्चात् सरस गोशीर्ष चन्दन से मेरे शरीर के अंगों पर विलेपन करना। फिर हंसवत् श्वेत महामूल्यवान, पटशाटक मुझे पहनना। उसके बाद मुझे समस्त अलंकारों से विभूषित करना। यह सब हो जाने के पश्चात् मुझे हजार पुरुषों से उठाई जाने योग्य शिविका (पालकी) में बिठाना। शिविकारूढ करके श्रावस्ती १. भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. ११, पृ. ७१५-७१७ २. (क) वही, भा. ११. पृ. ७१७ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २४५२
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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