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________________ पन्द्रहवाँ शतक ५०३ कि 'हल्ला' की आकृति कैसी होती है ? इसके पश्चात् हे अयंपुल ! तुझे ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि मैं अपने 'धर्माचार्य ............' से पूछ कर निर्णय करुं , इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। यावत् तू श्रावस्ती नगरी के मध्य में होता हुआ, झटपट हालाहला कुम्भारिन की दूकान में आया; हे अयंपुल ! क्या यह बात सत्य है ?' (अयंपुल—) 'हाँ, सत्य है।' (स्थविर-) हे अयंपुल ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक जो हालाहला कुम्भारिन की दूकान में आम्रफल लिए हुए यावत् अंजलिकर्म करते हुए विचरते हैं वह (इसलिए कि ) वे भगवान् गोशालक इस सम्बन्ध में आठ चरमों की प्ररूपणा करते हैं । यथा—चरम पान, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। हे अयंपुल ! जो ये तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक मिट्टी मिश्रित शीतल पानी से अपने शरीर के अवयवों पर सिंचन करते हुए यावत् विचरते हैं । इस विषय में भी वे भगवान् चार पानक और चार अपानक की प्ररूपणा करते हैं। वह पानक किस प्रकार का होता है ?' पानक चार प्रकार का होता है, यावत् .............. इसके पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं। अत: हे अयंपुल ! तू जा और अपने इन धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक से अपने इस प्रश्न को पूछ। - १०२. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीविएहि थेरेहिं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठ० उठाए उठेति, उ० २ जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्थ गमणाए। । [१०२] आजीविक स्थविरों द्वारा इस प्रकार कहने पर वह अयंपुल आजीविकोपासक हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ और वहाँ से उठकर गोशालक मंखलिपुत्र के पास जाने लगा। १०३. तए णं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंबकूणगएडावणट्ठयाए एगंतमंते संगारं कुव्वंति। __ [१०३] तत्पश्चात् उन आजीविक स्थविरों ने उक्त आम्रफल को एकान्त में डालने का गोशालक को संकेत किया। १०४. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आजीवियाणं थेराणं संगारं पडिच्छइ, सं० प० अंबकूणगं एगंतमंते एडेइ। [१०४] इस पर मंखलिपुत्र गोशालक ने आजीविक स्थविरों का संकेत ग्रहण किया और उस आम्रफल को एकान्त में एक ओर डाल दिया। १०५. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवा० २ गोसालं मंखलिपुत्तं तिक्खुत्तो जाव पजुवासति। [१०५] इसके पश्चात् अयंपुल आजीविकोपासक मंखलिपुत्र गोशालक के पास आया और मंखलिपुत्र गोशालक की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर यावत् (वन्दना-नमस्कार करके) पर्युपासना करने
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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