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________________ पन्द्रहवाँ शतक ४९९ ९४. से किं तं सिंबलिपाणए ? सिंबलिपाणए जे णं कलसिंगलियं वा मुग्गसिंगलियं वा माससिंगलिय वा सिंबलिसिंगलियं वा तरुणियं आमियं आसगंसि आवीलेति वा पीवलेति वा, ण य पाणियं पियइ से तं सिंबलिपाणए। [९४ प्र.] वह सिम्बली-पानक किस प्रकार का होता है ? [९४ उ.] सिम्बली (वृक्ष-विशेष की फली) का पानक वह है, जो कलाय (ग्वार या मसूर) की फली, मूंग की फली, उड़द की फली अथवा सिम्बली (वृक्ष-विशेष) की फली, आदि, तरुण (ताजी या नई) और अपक्व (कच्ची) हो, उसे कोई मुंह में थोड़ा चबाता है या विशेष चबाता है, परन्तु उसका पानी नहीं पीता, वही सिम्बल-पानक होता है। ९५. से किं तं सुद्धपाणए ? सुद्धपाणए जे णं छम्मासे सुद्धं खादिमं खाति—दो मासे पुढविसंथारोवगए, दो मासे कट्ठसंथारोवगए, दो मासे दब्भसंथारोवगए। तस्स णं बहुपडिपुण्णाणं छण्हं मासाणं अंतिमराईए इमे दो देवा महिड्डीया जाव महेसक्खा अंतियं पाउब्भवंति, तं जहा—पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य। तए णं ते देवा सीतलएहिं उल्लएहिं हत्थेहिं गायाई परामुसंति, जे णं ते देवे सातिजति से णं आसीविसत्ताए कम्मं पकरेति, जे णं ते देवे नो सातिजति तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवति। से णं सएणं तेयेणं सरीरगं झामेति, सरीरगं झामेत्ता ततो पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति।से त्तं सुद्धपाणए। [९५ प्र.] वह शुद्ध पानी किस प्रकार का होता है ? [९५ उ.] शुद्ध पानक वह होता है, जो व्यक्ति छह महीने तक शुद्ध खादिम आहार खाता है, छह महीनों में से दो महीने तक पृथ्वी-संस्तारक पर सोता है, (फिर) दो महीने तक काष्ठ के संस्तारक पर सोता है (तदनन्तर) दो महीने तक दर्भ (डाभ) के संस्तारक पर सोता है; इस प्रकार छह महीने परिपूर्ण हो जाने पर अन्तिम रात्रि में उसके पास ये (आगे कहे जाने वाले) दो महर्द्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव प्रकट होते हैं, यथा—पूर्णभद्र और माणिभद्र । फिर वे दोनों देव शीतल और (पानी से भीगे) गीले हाथों से उसके शरीर के अवयवों का स्पर्ष करते हैं। उन देवों का जो अनुमोदन करता है, वह आशीविष रूप से कर्म करता है, और जो उन देवों का अनमोदन नहीं करता. उसके स्वयं के शरीर में अग्निकाय उत्पन्न हो जाता है। वह अग्निकाय अपने तेज से उसके शरीर को जलाता है। इस प्रकार शरीर को जला देने के पश्चात् वह सिद्ध हो जाता है; यावत् सर्व दुःखों का अन्त कर देता है। यही वह शुद्ध पानक है। विवेचन—प्रस्तुत आठ सूत्रों (८८ से ९५ तक) में गोशालक ने मद्यपान, नृत्य-गान तथा शरीर पर शीतल जलसिंचन आदि तथा अपने आपको तीर्थंकर स्वरूप प्रसिद्ध करने एवं तेजोलेश्या से स्वयं के जल जाने आदि अपनी पाप चेष्टाओं पर पर्दा डालने और उन्हें धर्म रूप में मान्यता देकर लोगों को भ्रम में डालने के लिए अपने द्वारा आठ प्रकार के चरमों की प्ररूपणा की। इन्हें चरम इसलिए कहा कि 'ये फिर कभी नहीं होंगे।' इन
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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