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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अत्यन्त प्रज्वलित हो उठा। किन्तु अब वह श्रमण-निर्ग्रन्थों के शरीर को कुछ भी पीड़ा या उपद्रव पहुँचाने अथवा छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुआ।
___८५. तए णं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं समणेहिं निग्गंथेहिं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोइजमाणं, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारिजमाणं, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारिजमाणं
अटेहि य हेऊहि य जाव कीरमाणं आसुरुत्तं जाव मिसिमिसेमाणं समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकरेमाणं पासंति, पा० २ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ अत्थेगइया आयाए अवक्कमंति, आयाए अ० २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, ते० उ० २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति; क. २ वंदंति नमसंति, वं० २ समणं भगवं महावीरं उवसंपजिताणं विहरंति। अत्थेगइया आजीविया थेरा गोसालं चेव मंखलिपुत्तं उवसंपजित्ताणं विहरंति।
__ [८५] जब आजीविक स्थविरों ने यह देखा कि श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा धर्म-सम्बन्धी, प्रतिप्रेरणा, प्रतिस्मारणा और प्रत्युपचार से तथा अर्थ, हेतु व्याकरण एवं प्रश्नोत्तर इत्यादि से यावत् मंखलिपुत्र गोशालक को निरुत्तर कर दिया गया है, जिससे गोशालक अत्यन्त कुपित यावत् मिसमिसायमान होकर क्रोध से प्रज्वलित हो उठा, किन्तु श्रमण-निर्ग्रन्थों के शरीर को तनिक भी पीडित या उपद्रवित नहीं कर सका एवं उनका छविच्छेद नहीं कर सका, तब कुछ आजीविक स्थविर गोशालक मंखलिपुत्र के पास से (बिना कहे-सुने) अपने आप ही चल पड़े। वहाँ से चल कर वे श्रमण भगवान् महावीर के पास आ गए। फिर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की और उन्हें वन्दन-नमस्कार किया। तत्पश्चात् वे श्रमण भगवान् महावीर का आश्रय स्वीकार करके विचरण करने लगे। कितने ही ऐसे आजीविक स्थविर थे, जो मंखलिपुत्र गोशालक का आश्रय ग्रहण करके ही विचरते रहे।
विवेचन—प्रस्तुत तीन सूत्रों (८३ से ८५ तक में) गोशालक के पतन एवं पराजय से सम्बन्धित तीन वृतान्तों का निरूपण है।
(१) गोशालक के साथ धर्मचर्चा करने का भगवान् का आदेश पाकर श्रमणनिर्ग्रन्थों ने गोशालक के साथ धर्मचर्चा की और विभिन्न युक्तियों, तर्कों और हेतुओं से उसे निरुत्तर कर दिया।
(२) निरुत्तर एवं पराजित गोशालक उन श्रमणनिर्ग्रन्थों पर अत्यन्त रुष्ट हुआ, किन्तु अब वह क्रोध करके ही रह गया। उसमें श्रमणों को कुछ बाधा-पीड़ा पहुँचाने या उनका अंगभंग कर देने का सामर्थ्य नहीं रहा।
(३) जब आजीविक स्थविरों ने गोशालक को निरुत्तर तथा श्रमणों का बाल भी बांका कर सकने में असमर्थ हुआ देखा तो गोशालक का आश्रय छोड़ कर वे भगवान् के आश्रय में आ कर रहने लगे। कुछ आजीविक स्थविर गोशालक के पास ही रहे।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ७१९-६२०