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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उन पर क्रुद्ध होकर आया और उपालम्भपूर्वक व्यंग करते हुए कहने लगा—आयुष्मन् काश्यप ! तुमने मुझे अपना धर्मशिष्य बताया परन्तु तुम्हें मालूम होना चाहिए कि वह जो तुम्हारा धर्मशिष्य गोशालक था, वह तो शुभभावों से मरकर कभी का देवलोक में उत्पन्न हो चुका है। मैं तुम्हारा धर्मान्तेवासी नहीं हूँ। मैं तो कौण्डिन्यायनगोत्रीय उदायी हूँ। गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर का त्याग करके मैं मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हुआ हूँ। यह मेरा सातवाँ परिवृत्तपरिहार है।
इस प्रकार उसने उपर्युक्त बात कहकर अपने स्वरूप को छिपाया और फिर अपने मनःकल्पित सिद्धान्तानुसार मोक्ष जाने वालों का क्रम बतलाया है। इसी सन्दर्भ में उसने स्वसिद्धान्तानुसार महाकल्प, संयूथ, शर-प्रमाण, मानस-शर-प्रमाण, उद्धार आदि का वर्णन किया है। फिर अपने सात प्रवृत्तपरिहारों के नामपूर्वक विस्तृत वर्णन किया है।
गोशालक-सिद्धान्त : अस्पष्ट एवं संदिग्ध–वृत्तिकार का अभिप्राय है कि यह सिद्धान्त पूर्वापरविरुद्ध, असंगत एवं अस्पष्ट है, इसलिए इसकी अर्थसंगति हो ही कैसे सकती हैं ?
कठिन शब्दों के विशेषार्थ—सुक्के शुक्ल-पवित्र। सुक्काभिजाइए-शुक्ल परिणाम वाला। पउट्ट-परिहार-एक शरीर छोड़कर दूसरे को धारण करना । ठप्पे-स्थाप्य-अव्याख्येय।अवहाय छोड़कर। कोठे—गंगासमुदायात्मक कोष्ठ। निल्लेवे पूरी तरह साफ-खाली रजकण के लेप का भी अभाव। निट्ठिए—निष्ठित-अवयवरहित किया हुआ। अलंथिरं—अत्यन्त स्थिर। अविद्धकन्नए—जिसके कान कुश्रुतिरूपी शलाका से बींधे हुए नहीं हैं अर्थात्-जो अभी तक निर्दोषबुद्धि है, अव्युत्पन्नमति है। कोरी स्लेट के समान साफ है। भगवान् द्वारा गोशालक को चोर के दृष्टान्तपूर्वक स्व-भ्रान्तिनिवारण-निर्देश
६९. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्त एवं वदासी—गोसाला ! से जहानामए तेणए सिया, गामेल्लएहिं परब्भमाणे परब्भमाणे कथयि गड्डं वा दरिं वा दुग्गंवा णिण्णं वा पव्वयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उण्णलोमेण वा सणलोमेण वा कप्पासपोम्हेण वा तणसूएण वा अत्ताणं आवरेत्ताणं चिढेजा, सेणं अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मन्नति, अप्पच्छन्ने पच्छन्नमिति अप्पाणं मन्नति, अणिलुक्के णिलुक्कमिति अप्पाणं मन्नति, अपलाए पलायमिति अप्पाणं मन्नति, एवामेव तुमं पि गोसाला ! अणन्ने संते अन्नमिति अप्पाणं उवलभति, तं मा एवं गोसाला !, नारिहसि गोसाला ! सच्चेव, ते सा छाया, नो अन्ना।।
[६९] (गोशालक के उपर्युक्त कथन पर) श्रमण भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र गोशालक से यों कहा—गोशालक ! जैसे कोई चोर हो और वह ग्रामवासी लोगों के द्वारा पराभव पाता हुआ (खदेड़ा जाता
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. २ (मू.पा. टिप्पणयुक्त) पृ. ७११ से ७१५ तक
भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६७६ ३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६७७