________________
४८३
पन्द्रहवाँ शतक
इनमें से जो प्रथम परिवृत्त - परिहार (शरीरान्तर - प्रवेश) हुआ, वह राजगृह नगर के बाहर मंडिककुक्षि नामक उद्यान में, कुण्डियायण गोत्रीय उदायी के शरीर का त्याग करके ऐणेयक के शरीर में प्रवेश किया । ऐणेयक के शरीर में प्रवेश करके मैंने बाईस वर्ष तक प्रथम परिवृत्त - परिहार (शरीरान्तर में परिवर्तन ) किया ।
इनमें से जो द्वितीय परिवृत्त - परिहार हुआ, वह उद्दण्डपुर नगर के बाहर चन्द्रावतरणनामक उद्यान में मैंने ऐणेयक के शरीर का त्याग किया और मल्लरामक के शरीर में प्रवेश किया | मल्लरामक के शरीर में प्रवेश करके मैंने इक्कीस वर्ष तक दूसरे परिवृत्त - परिहार का उपभोग किया।
इनमें से जो तृतीय परिवृत्त - परिहार हुआ, वह चम्पानगरी के बाहर अंगमंदिर नामक उद्यान में मल्लरामक के शरीर का परित्याग किया। मल्लरामक- शरीर त्याग करके मैंने मण्डिक के शरीर में प्रवेश किया। मण्डिक के शरीर में प्रविष्ट हो कर मैंने बीस वर्ष तक तृतीय परिवृत्त - परिहार का उपभोग किया।
इनमें से जो चतुर्थ परिवृत्त - परिहार हुआ, वह वाराणसी नगरी के बारह काम - महावन नामक उद्यान के मण्डक के शरीर का मैंने त्याग किया और रोहक के शरीर में प्रवेश किया। रोहक - शरीर में प्रविष्ट होकर मैंने उन्नीस वर्ष तक चतुर्थ परिवृत्त - परिहार का उपभोग किया।
उनमें से जो पंचम परिवृत्त - परिहार हुआ, वह आलभिका नगरी के बाहर प्राप्तकालक नाम के उद्यान में हुआ। उसमें मैं रोहक के शरीर का परित्याग करके भारद्वाज के शरीर में प्रविष्ट हुआ, भारद्वाज - शरीर में प्रविष्ट होकर अठारह वर्ष तक पाँचवें परिवृत्त - परिहार का उपभोग किया।
उनमें से जो छठा परिवृत्त- परिहार हुआ, उसमें मैंने वैशाली नगर के बाहर कुण्डियायन नामक उद्यान में भारद्वाज के शरीर का परित्याग किया और गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर में प्रवेश किया। अर्जुनक- शरीर में प्रविष्ट होकर मैंने सत्रह वर्ष तक छठे परिवृत्त - परिहार का उपभोग किया।
उनमें से जो सातवाँ परिवृत्त - परिहार हुआ, उसमें मैंने इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्भकारी की बर्तनों की दूकान में गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर का परित्याग किया। अर्जुनक के शरीर का परित्याग करके मैंने समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करने योग्य, शीतसहिष्णु, उष्णसहिष्णु क्षुधासहिष्णु, विविध दंश - मशकादिपरीषहउपसर्ग-सहनशील एवं स्थिर संहननवाला जानकर, मंखलिपुत्र गोशालक के उस शरीर में प्रवेश किया। उसमें प्रवेश करके मैं सोलह वर्ष तक इस सातवें परिवृत्त - परिहार का उपभोग करता हूँ ।
इसी प्रकार हे आयुष्मन् काश्यप ! इन एक-सौ तेतीस वर्षों में मेरे ये सात परिवृत्तपरिहार हुए हैं, ऐसा मैंने हा था। इसलिए आयुष्मन् काश्यप ! तुम ठीक कहते हो कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है, यह तुम ठीक ही कहा है आयुष्मन् काश्यप ! कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्म - शिष्य है ।
विवेचन — प्रस्तुत सूत्र (६८) में गोशालक ने भगवान् महावीर के समक्ष अपने स्वरूप को छिपाने और भगवान् को झुठलाने हेतु अपनी परिवृत्तपरिहार की मिथ्या मान्यतानुसार अपने सात परिवृत्तपरिहार (शरीरान्तक प्रवेश) की प्ररूपणा की है ।
गोशालक के विस्तृत भाषण का आशय – भगवान् द्वारा गोशालक की कलई खुल जाने से वह