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________________ पन्द्रहवाँ शतक मसगपरीसहोवसग्गसहं थिरसंघयणं ति कट्टु तं अणुप्पविसामि, तं अणुप्पविसित्ता सोलस वासाई इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । ४८१ " एवामेव आउसो ! कासवा ! एएणं तेत्तीसेणं वाससएषां सत्त पउट्टपरिहारा परिहरिया भवंतीति मक्खाया। तं सुट्टु णं आउसो ! कासवा ! ममं एवं वदासि, साधु णं आउसो ! कासवा ! ममं एवं वदासी ‘गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासि' त्ति ।" [६८] जब आनन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को भगवान् का आदेश कह रहे थे, तभी मंखलिपुत्र गोशालक आजीविकसंघ से परिवृत (युक्त) होकर हालाहला कुम्भकारी की दूकान से निकल कर अत्यन्त रोष धारण किये हुए शीघ्र एवं त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होकर कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आया। फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से न अतिदूर और न अतिनिकट खड़ा रह कर उन्हें इस प्रकार कहने लगा आयुष्मन् काश्यप ! तुम मेरे विषय में अच्छा कहते हो ! हे आयुष्मन् ! तुम मेरे प्रति ठीक कहते हो कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है, गोशालक मंखलिपुत्र मेरा धर्म - शिष्य है । (परन्तु आपको ज्ञात होना चाहिए कि ) जो मंखलिपुत्र गोशालक तुम्हारा धर्मान्तेवासी था, वह तो शुक्ल (पवित्र) और शुक्लाभिजात (पवित्र परिणाम वाला) हो कर काल के समय काल करके किसी देवलोक के देवरूप में उत्पन्न हो चुका है। मैं तो कौण्डिन्यायन-गोत्रीय उदायी हूँ । मैने गौतम पुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग किया, फिर मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया। मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश करके मैंने यह सातवाँ परिवृत्तपरिहार किया है। हे आयुष्मन् काश्यप ! हमारे सिद्धान्त के अनुसार जो भी सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते हैं, अथवा सिद्ध होंगे, सब (पहले) चौरासी लाख महाकल्प, ( कालविशेष), सात दिव्य (देवभव), सात संयूथनिकाय, सात संज्ञीगर्भ (मनुष्य-गर्भावास) सात परिवृत्त - परिहार ( उसी शरीर में पुनः पुनः प्रवेश - उत्पत्ति) और पांच लाख, साठ हजार छह-सौ तीन कर्मों के भेदों को अनुक्रम से क्षय करके तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । भूतकाल में ऐसा किया है, वर्त्तमान में करते हैं और भविष्य में ऐसा करेंगे। जिस प्रकार गंगा महानदी जहाँ से निकलती है, और जहाँ (जा कर) समाप्त होती है; उसका वह मार्ग (अद्धा) लम्बाई में ५०० योजन है और चौड़ाई में आधा योजन है तथा गहराई में पाँच सौ धनुष है। उस गंगा प्रमाण वाली सात गंगाएँ मिल कर एक महागंगा होती है। सात महागंगाएँ मिलकर एक सादीनगंगा होती है। सात सादीनगंगाएँ मिल कर एक मृतगंगा होती है। सात मृतगंगाए मिलकर एक लोहितगंगा होती है । सात लोहितगंगाएँ मिल कर एक अवन्तीगंगा होती है। सात अवन्तीगंगाएँ मिल कर एक परमावतीगंगा होती है । इस प्रकार पूर्वापर मिल कर कुल एक लाख, सत्रह हजार, छह सौ उनचास गंगा नदियाँ होती हैं, ऐसा कहा गया है। उन (गंगानदियों के बालुकाकण) का दो प्रकार का उद्धार कहा गया है । यथा— (१) सूक्ष्म-बोन्दिकलेवररूप और (२) बादर - बोन्दि - कलेवररूप । उनमें से जो सूक्ष्मबोंदि-कलेवररूप उद्धार है, वह स्थाप्य है
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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