________________
पन्द्रहवाँ शतक
आनन्द स्थविर का भीतिनिवारण रूप मनः समाधान तथा उसके साथ-साथ भगवान् द्वारा समस्त श्रमणनिर्ग्रन्थों को गोशालक को न छेड़ने को चेतावनी भी प्रस्तुत की गई है।
४७७
गोशालक के तप-तेज की शक्ति- -आनन्द स्थविर ने गोशालक द्वारा अपने तप तेज से दूसरों को भस्म करने के सामर्थ्य (प्रभुत्व ) के विषय में प्रश्न किया है। इसी प्रश्न में दो प्रश्न गर्भित हैं, क्योंकि प्रभुत्व (सामर्थ्य) दो प्रकार का होता है- ( १ ) विषयमात्र की अपेक्षा से और (२) सम्प्राप्ति रूप ( कार्यरूप में परिणत कर देने) की अपेक्षा से । दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है— योग्यता से अथवा कर्तृत्वक्षमता से । अर्थात् — गोशालक केवल विषयमात्र से दूसरों को भस्म करने में समर्थ है अथवा कार्यरूप में परिणत करने में भी समर्थ है ? भगवान् ने उपसंहार करते हुए उत्तर दिया है कि गोशालक विषयमात्र से भस्म करने में समर्थ है और करणतः भी समर्थ है। साथ ही उन्होंने क्षमाशील अनगार भगवन्तों, स्थविर भगवन्तों और अरिहन्त भगवन्तों के तप-तेज का सामर्थ्य उत्तरोत्तर अनन्त - गुणविशिष्टतर बताया है। हाँ, इतना अवश्य है कि वह इन्हें पीडित कर सकता है ।
भगवान् द्वारा श्रमणों को दी गई चेतावनी का आशय 'वादी भद्रं न पश्यति', इस न्याय से तथा 'माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ ' इस सिद्धान्त के अनुसार श्रमणों के प्रति मिथ्याभाव (अनार्यपन) धारण किए हुए गोशालक को किसी भी रूप में न छेड़ने की भगवान् की चेतावनी थी। इसके पीछे एक आशय यह भी सम्भव है कि यद्यपि भगवान् ने गोशालक के तप-तेज के सामर्थ्य की अपेक्षा अनगार एवं स्थविर के तपतेज का सामर्थ्य अनन्त-गुण-विशिष्ट बताया है, बशर्ते कि वे क्षान्तिक्षम (क्षमासमर्थ अथवा कष्टसहिष्णुतासमर्थ) हों । हो सकता है छद्मस्थ होने के कारण अनगारों या स्थविरों में गोशालक के साथ विवाद करते समय या उसके मत का खण्डन करते समय उसके प्रति क्षमाशीलता, अकषायवृत्ति या अद्वेषवृत्ति न रहे और ऐसी स्थिति में गोशालक का दाव अनगारों या स्थविरों के प्रति लग जाए। इसलिए भगवान् की समस्त साधुओं को गोशालक के प्रति तटस्थ या मध्यस्थ रहने की यह चेतावनी थी ।
'
कठिन शब्दार्थ —— पारितावणियं परितापना या पारितापनिकी क्रिया । खंतिक्खमा— क्षान्तिक्रोधनिग्रह करने में क्षम—समर्थ । थेराणं – वय, श्रुत, और पर्याय (दीक्षापर्याय) से स्थविरों का । धम्मियाए पडिचोयणाए – धर्मसम्बन्धी ( गोशालक के मत सम्बन्धी ) प्रतिवेदना, उसके मत के प्रतिकूल कर्तव्यप्रोत्साहन रूप से प्रेरणा। धम्मियाए पडिसरणाए – (गोशालक के) धर्म मत के प्रतिकूल रूप से विस्मृत अर्थ (बात) की स्मारणा द्वारा । धम्मिएण पडोयारेण - धार्मिक ( धर्म सम्बन्धी ) प्रत्युपचार ( तिरस्कार) से अथवा प्रत्युपकार (भ. महावीर द्वारा कृत उपकार का बदला ) से । मिच्छं विप्पडिवन्ने – मिथ्यात्व- (म्लेच्छत्व या अनार्यत्व) । विशेष तप से स्वीकार (अंगीकार) कर लिया है।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६७५ *(ख) भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भाग, ११५९७
२. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २, (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) पृ. ७०९-७१०
३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६७५