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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
(बेले के तप) के पारणे के लिए आपकी आज्ञा प्राप्त कर श्रावस्ती नगरी में ऊँच नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षाटन करते हुए जब मैं हालाहला कुम्भारिन की दूकान के पास से होकर जा रहा था, तब मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे देखा और बुला कर कहा - ' हे आनन्द ! यहाँ आओ और मेरे एक दृष्टान्त को सुन लो ।' मंखलिपुत्र गोशालक के द्वारा यह कहने पर जब मैं हालाहला कुम्भारिन की दूकान में मंखलीपुत्र गोशालक के पास पहुँचा, तब उसने मुझे इस प्रकार कहा—' हे आनन्द ! आज से बहुत काल पहले कई उन्नत और अवनत वणिक् इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत् यावत् — अपने नगर पहुँचा दिया ।' अतः हे आनन्द ! तुम जाओ और अपने धर्मोपदेशक़ को यावत् कह देना ।
(आनन्द स्थविर—) [प्र.] 'भगवन् ! क्या मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप - तेज से एक ही प्रहार में कूटाघात के समान जला कर भस्मराशि (राख का ढेर ) करने में समर्थ है ? भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह यावत् विषयमात्र है अथवा वह ऐसा करने में समर्थ भी है ?"
(भगवान् — ) [उ.] ‘हे आनन्द ! मंखलीपुत्र गोशालक अपने तप - तेज से यावत् भस्म करने में समर्थ है । है आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह विषय है । हे आनन्द ! गोशालक ऐसा करने में भी समर्थ है; परन्तु अरिहन्त भगवन्तों को (जला कर भस्म करने में समर्थ) नहीं है । तथापि वह उन्हें परिताप उत्पन्न करने में समर्थ है। हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक का जितना तप-तेज है, उससे अनन्त - गुण विशिष्टतर तप-तेज अनगार भगवन्तों का है, (क्योंकि) अनगार भगवन्त क्षान्तिक्षम ( क्षमा करने में समर्थ ) होते हैं । हे आनन्द ! अनगार भगवन्तों का जितना तप-तेज है, उससे अनन्तगुण विशिष्टतर तप-तेज स्थविर भगवन्तों का है, क्योंकि स्थविर भगवन्त क्षान्तिक्षम होते हैं और हे आनन्द ! स्थविर भगवन्तों का जितना तप- तेज होता है, उससे अनन्त-गुण विशिष्टतर तप-तेज अर्हन्त भगवन्तों का होता है, क्योंकि अर्हन्त भगवन्त क्षान्तिक्षम होते हैं । अतः
आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज द्वारा यावत् भस्म करने में प्रभु (समर्थ) है। हे आनन्द ! यह उसका (कर्तृत्व) विषय (शक्ति) है और हे आनन्द ! वह वैसा करने में भी समर्थ भी है; परन्तु अर्हन्त भगवन्तों को भस्म करने में समर्थ नहीं, केवल परिताप उत्पन्न कर सकता है।'
(भगवन् — ) ' इसलिए हे आनन्द ! तू जा और गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को यह बात (मेरा यह सन्देश) कह कि हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक के साथ (तुम में से) कोई भी ( श्रमण) धार्मिक (उसके धर्म के प्रतिकूल धर्मसम्बन्धी) प्रतिप्रेरणा (चर्चा) न करे, धर्मसम्बन्धी प्रतिसारणा ( उसके मत के विरुद्ध अर्थ रूप स्मरण) न करावे तथा धर्मसम्बन्धी प्रत्युपचार (तिरस्कार) पूर्वक कोई प्रत्युपचार ( तिरस्कार) न करे। क्योंकि (अब) मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति विशेष रूप से मिथ्यात्व भाव (म्लेच्छ या अनार्यत्व) धारण कर लिया है।'
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र (६६) के पूर्वार्द्ध में गोशालक के साथ हुए आनन्द स्थविर के वार्तालाप तथा गोशालक के द्वारा भगवान् को दी गई धमकी का आनन्द द्वारा किया गया निवेदन प्रस्तुत किया गया है । उत्तरार्द्ध में आनन्द द्वारा गोशालक की भस्म करने की शक्ति के सम्बन्ध में उठाया गया प्रश्न तथा भगवान् द्वारा