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पन्द्रहवाँ शतक
प्ररूपणा करता हूँ कि मंखलिपुत्र गोशालक का, मंख जाति का मंखली नाम का पिता था । उस मंखजातीय खली की भद्रा नाम की भार्या (पत्नी) थी । वह सुकुमाल हाथ-पैर वाली यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) थी। किसी समय वह भद्रा नामक भार्या गर्भवती हुई।
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विवेचन — प्रस्तुत सूत्र में गोशालक के जिन होने के दावे का खण्डन करते हुए भगवान् ने उसके पितामाता का परिचय देकर कहा—मंखली भार्या भद्रा के गर्भ में गोशालक आया ।
शरवण - सन्निवेश में गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला में मंखली- भद्रा का निवास, गोशालक का जन्म और नामकरण
१५. तेणं कालेणं तेणं समएणं सरवणे नाम सन्निवेसे होत्था, रिद्धत्थिमिय जाव सन्निभप्पगासे पासादीए ४ ।
[१५] उस काल उस समय में ' शरवण' नामक सन्निवेश ( नगर के बाहर का प्रदेश — उपनगर) था । वह ऋद्धि-सम्पन्न, उपद्रव-रहित यावत् देवलोक के समान प्रकाश वाला और मन को प्रसन्न करने वाला था, यावत्प्रतिरूप था ।
१६. तत्थ णं सरवणे सन्निवेसे गोबहुले नाम माहणे परिवसति अड्ढे जाव अपरिभूते रिउव्वेद जाव सुपरिनिट्ठ यावि हत्था । तस्स णं गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला यावि होत्था ।
[१६] उस सन्निवेश में 'गोबहुल' नामक एक ब्राह्मण (माहन) रहता था। वह आढ्य यावत् अपराभूत था। वह ऋग्वेद आदि वैदिकशास्त्रों के विषय में भलीभांति निपुण था । उस गोबहुल ब्राह्मण की एक गोशाला थी ।
१७. तए णं से मंखली मंखे अन्नदा कदायि भद्दाए भारियाए गुव्विणीय मद्धिं चित्तफलगहत्थरए मंखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव सरवणे सन्निवेसे जेणेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० २ गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करेति, भंड० क० २ सरवाणे सन्निवेसे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे वसहीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेति, वसहीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणे अन्नत्थ वसहिं अलभमाणे तस्सेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए।
[१७] एक दिन वह मंखली नामक भिक्षाचर ( मंख) अपनी गर्भवती भद्रा भार्या को साथ लेकर निकला। वह चित्रफलक हाथ में लिए हुए चित्र में बता कर आजीविका करने वाले भिक्षुओं की वृत्ति से (मंखत्व से) अपना जीवनयापन करता हुआ, क्रमशः ग्रामानुग्राम विचरण करता हुआ जहाँ शरवण नामक सन्निवेश था और जहाँ गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला थी, वहाँ आया। फिर उसने गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला के एक भाग में
१. वियाहपण्णत्ति (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ६९१