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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१३] तदनन्तर भगवान् गौतम को बहुत-से लोगों से यह बात सुन कर एवं मन में अवधारण कर यावत् प्रश्न पूछने की श्रद्धा (मन में) उत्पन्न हुई, यावत् (भगवान् के निकट पहुँच कर उन्होंने) भगवान् को आहारपानी दिखाया। फिर यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले—' भगवन् ! मैं छट्ठ (बेले के तप) के पारणे में भिक्षाटन —' इत्यादि सब पूर्वोक्त कहना चाहिए, यावत्' गोशालक 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है, तो हे भगवन् ! उसका यह कथन कैसा है ? अतः भगवन् ! मैं मंखलिपुत्र गोशालक का जन्म से लेकर अन्त तक का वृतान्त ( आपके श्रीमुख से) सुनना चाहता हूँ।' ४४६ विवेचन —— मंखलिपुत्र गोशालक के चरितं की जिज्ञासा - प्रस्तुत ४ सूत्रों (सू. १० १३ तक) में मंखलिपुत्र गोशालक के विषय में बहुत-से लोगों से सुनकर श्री गौतम स्वामी के मन में भगवान् से इसका समाधान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रादुर्भूत हुई, जिसकी संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत है । जिज्ञासा के कारण ये हैं- ( १ ) श्रावस्ती नगरी में तिराहे - चौराहे आदि पर बहुत से लोगों का परस्पर गोशालक के जिन आदि होने के सम्बन्ध में वार्तालाप । (२) राजगृह में विराजमान भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गौतम ने छठ तप के पारणे के लिए नगर में भिक्षाटन करते हुए बहुत-से लोगों से गोशालक के विषय में वही चर्चा सुनी। (३) भगवान् की सेवा में पहुँचकर भगवान् के समक्ष अपनी गोशालक चरितविषयक जिज्ञासा प्रस्तुत की और भगवान् से समाधान मांगा। कठिन शब्दों के अर्थ – जिणप्पलावी – जिन न होते हुए भी जिन कहने वाला । पडिदंसेतिदिखलाता है। उट्ठाणपारियाणियं- उत्थान — जन्म से लेकर पर्यवसान- - अन्त तक का चरित । गोशालक के माता-पिता का परिचय तथा भद्रा माता के गर्भ में आगमन १४. 'गोतमा ! ' दी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी—– जं ञं गोयमा ! से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति ४ एवं खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरति' तं णं मिच्छा, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु एयस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखली णामं मंखे पिता होत्था । तस्स णं मंखलिस्स मंखस्स भद्दा नामं भारिया होत्था, सुकुमाल० जाव पडिरूवा । तए णं सा भद्दा भारिया अन्नदा कदायि गुव्विणी यावि होत्था ।. [१४] (भगवान् ने कहा)- - हे गौतम! इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा— गौतम ! बहुत-से लोग, जो परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं, यावत् 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है, यह बात मिथ्या है। हे गौतम! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू.पा.टि. युक्त) भा. २, पृ. ६९१ २. भगवती अ. वृत्ति पत्र ६६१ 'उट्ठाण पारियाणियं' ति परियानं – विविधव्यतिकरपरिगमनं, तदेव पारियानिकं — चरितम् । उत्थानात्- -जन्मन आरभ्य पारियानिकम् उत्थानपारियानिकं तत् परिकथितं भगवद्भिरिति गम्यते । - अ. वृत्ति
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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