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चौदहवां शतक : उद्देशक-९
४३३ पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ अनुत्तरौपपातिक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है। इसके बाद शुक्ल (शुद्धचारित्री) एवं परम शुक्ल (निरतिचार—विशुद्धतरचारित्री) होकर फिर वह सिद्ध होता है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है।
भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में एक मास के दीक्षित साधु से लेकर बारह मास के दीक्षित श्रमण-निर्ग्रन्थ के सुख को अमुक-अमुक देवों के सुख से बढ़कर बताया गया है।
तेजोलेश्या शब्द का अर्थ, भावार्थ, सुखासिका क्यों?— यद्यपि तेजोलेश्या का शब्दश: अर्थ होता है—तेज की प्रभा-द्युति आदि। परन्तु यहाँ यह अर्थ विवक्षित नहीं है। यहाँ तेजः शब्द सुख के अर्थ में व्यवहृत है। इसी कारण तेजोलेश्या का वृत्तिकार ने 'सुखासिका' अर्थ किया है। सुखासिका अर्थात्-सुखपूर्वक रहने की वृत्ति (परिणाम-धारा)। सुखासिका का अर्थ यहाँ सुख इसलिए विवक्षित है कि तेजोलेश्या प्रशस्तलेश्या है
और वह सुख की हेतु है । यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके तेजोलेश्या पद से सुखासिका अर्थ प्रतिपादित किया है।
सुक्के सुक्काभिजातिए : विशेषार्थ—शुक्ल का अर्थ यहाँ अभिन्नवृत्त—(अखण्डचारित्री), अमत्सरी, कृतज्ञ, सदारम्भी एवं हितानुबन्ध है तथा 'शुक्लाभिजात्य' का अर्थ परमशुक्ल अर्थात्—निरतिचार-चारित्रीविशुद्धचारित्राराधक। एक वर्ष से अधिक दीक्षा पर्याय वाला क्रमशः शुक्ल एवं परमशुक्ल होकर अन्त में सिद्धबुद्ध-मुक्त यावत् सर्वदुखों का अन्त करने वाला होता है।
अज्जत्ताए—आर्यत्व से युक्त, अर्थात्-पापकर्म से दूर। वीयीवयंति-व्यतिक्रमण—लांघ जाते हैं।
॥चौदहवां शतक : नौवा उद्देशक समाप्त॥
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१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५६-६५७ ___ (ख) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. ११, पृ. ४१५ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५७