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चौदहवां शतक : उद्देशक-९
४२९ ६. एवं जाव थणियकुमाराणं। [६] इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। ७. पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! अत्ता वि पोग्गला, अणत्ता वि पोग्गला। [७ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के आत्त पुद्गल होते हैं अथवा अनात्त पुद्गल होते हैं ? [७ उ.] गौतम ! उनके आत्त पुद्गल भी होते हैं और अनात्त पुद्गल भी होते हैं। ८. एवं जाव मणुस्साणं। [८] इसी प्रकार (अप्कायिक जीवों से लेकर) मनुष्यों तक (के विषय में) कहना चाहिए। ९. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं। [९] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में असुरकुमारों के समान कहना चाहिए। १०. नेरतियाणं भंते ! किं इट्ठा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला ? गोयमा ! नो इट्ठा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला। [१० प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के पुद्गल इष्ट होते हैं या अनिष्ट होते हैं ? [१० उ.] गौतम ! उनके पुद्गल इष्ट नहीं होते, अनिष्ट पुद्गल होते हैं।
११. जहा अत्ता भणिया एवं इट्ठा वि, कंता वि, पिया वि, मणुन्ना वि भाणियव्वा। एए पंच दंडगा।
[११] जिस प्रकार आत्तं पुद्गलों के विषय में (आलापक) कहे हैं, उसी प्रकार इष्ट, कान्त, प्रिय तथा मनोज्ञ पुद्गलों के विषय में (आलापक) कहने चाहिए। इस प्रकार ये पांच दण्डक कहने चाहिए।
विवेचन—प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. ४ से ११ तक) में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के पांच प्रकार के शुभ-अशुभ पुद्गलों के विषय में प्रश्नोततर किया गया है।
आत्त आदि का अर्थ-अत्ताः दो रूप तीन अर्थ आत्र—जो सब ओर से दुःखों से त्राण रक्षण करता
ख उत्पन्न करता है, वह दुःखत्राता सुखोत्पादक आत्र है। (२) आप्त-एकान्त हितकारक। (३) अतएव रमणीय। अनात्त-दु:खकारक-अहितकारी। इट्ठा—इष्ट-अभीष्ट । कंता—कान्त-कमनीय। पियाप्रिय—प्रीतिजनक।मणुण्णा-मनोज्ञ-मन के अनुकूल। १. (क) अत्त त्ति-आ-अभिविधिना त्रायन्ते-दुःखात् संरक्षन्ति, सुखं चोत्पादयन्तीति आत्राः, आप्ता वा- एकान्तहिताः। अतएव रमणीया इति वृद्धैर्व्याख्यातम्।
- भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५६ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन), भा. ५, पृ. २३५८