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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होने से ज्ञानावरणीयादि कर्मों के योग्य अथवा कर्मसम्बन्धी कृष्णादि लेश्याओं को जान-देख नहीं सकता, क्योंकि कृष्णादि लेश्याएँ और उनसे श्लिष्ट कर्मद्रव्य अतीव सूक्ष्म होने से छद्मस्थ के ज्ञान से अगोचर होते हैं। किन्तु वह कर्म और लेश्या से युक्त तथा शरीरसहित जीव (अपनी आत्मा) को तो जानता-देखता ही है, क्योंकि शरीर चक्षु द्वारा ग्राह्य है तथा आत्मा शरीर से सम्बद्ध होने से कथंचित् अभेद एवं स्वसंविदित होने से भावितात्मा अनगार कर्म एवं लेश्या से युक्त तथा शरीरसहित स्वात्मा को जानता है।'
वर्णादि वाले (सरूपी) एवं कर्मलेश्या वाले पुद्गल-स्कन्ध–चन्द्रमा और सूर्य के विमानों से निकली हुई जो तेजस्वी प्रभाएँ (लेश्याएँ) प्रकाशित होती हैं, उन लेश्याओं के प्रकाश से ही पूर्वोक्त सरूपी (वर्णादिवाले) और कर्मलेश्या वाले पुद्गल-स्कन्ध भी प्रकाशित होते हैं । यद्यपि चन्द्र-सूर्य के विमान के पुद्गल पृथ्वीकायिक होने से सचेतन हैं, इस कारण उनमें कर्मलेश्यावत्ता तो उचित है, किन्तु उनसे निकले हुए प्रकाश के पुद्गल कर्मलेश्या वाले नहीं होते, तथापि वे उनसे निकले हैं, इस कारण वे प्रकाश के पुद्गल कार्य में कारण के उपचार को लेकर कर्मलेश्या वाले कहे गये हैं।
कठिन शब्दार्थ—सरूवी-सरूपी-रूप (मूर्तता) सहित, वर्णादि वाले या रूप और रूपवान् का अभेदसम्बन्ध होने से शरीर सहित। सकम्मलेस्सा-कर्मलेश्यासहित, अर्थात्-कर्मद्रव्यश्लिष्ट कृष्णादि लेश्यायुक्त । लेस्साओ—तेज की प्रभाएँ, तेजोलेश्याएँ। बहिया अभिनिस्सडाओ—बाहर अभिनिःसृत-निकली हुई। ओभासंति—प्रकाशित-प्रद्योतित होती हैं। चौवीस दण्डकों में आत्त-अनात्त, इष्टानिष्ट आदि पुद्गलों की प्ररूपणा
४ नेरतियाणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला ? गोयमा ! नो अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला। [४ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के आत्त पुद्गल होते हैं अथवा अनात्त पुद्गल होते हैं ? [४ उ.] गौतम ! उसके आत्त पुद्गल नहीं होते, अनात्त पुद्गल होते हैं। ५. असुरकुमाराणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला ? गोयमा ! अत्ता पोग्गला, णो अणत्ता पोग्गला। [५ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के आत्त पुद्गल होते हैं, अथवा अनात्त पुद्गल होते हैं ? [५ उ.] गौतम ! उनके आत्त पुद्गल होते हैं, अनात्त पुद्गल नहीं होते।
१. (क़) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५५
(ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिकाटीका) भा. ११, पृ. ३९७ २. वही, प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. ११, पृ. ३९७ ३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५५