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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र १३. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्स कम्मस्स किं उदीरगा, अणुदीरगा ? गोयमा ! नो अणुदीरगा, उदीरए वा उदीरगा वा ? एवं जाव अंतराइयस्स। नवरं वेदणिज्जाउएसु अट्ठ भंगा। [ दारं ८] [११. प्र.] भगवन् ! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के उदीरक हैं या अनुदीरक हैं ? [११. उ.] गौतम ! वे अनुदीरक नहीं; किन्तु (यदि एक जीव हो तो) एक जीव उदीरक है, अथवा (यदि अनेक जीव हों तो) अनेक जीव उदीरक हैं । इसी प्रकार अन्तराय कर्म (के उदीरक-अनुदीरक) तक जानना चाहिए; परन्तु इतना विशेष है कि वेदनीय और आयुष्य कर्म (के उदीरक) में पूर्वोक्त आठ भंग कहने चाहिए। [- आठवाँ द्वार] विवेचन—उत्पलजीव के अष्टकर्म बन्धक-अबन्धक, वेदक-अवेदक, उदयी-अनुदयी, उदीरकअनुदीरक सम्बन्धी विचार—प्रस्तुत ५ सूत्रों (९ से १३ तक) में उत्पलजीवों के ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्म के बन्धक-अबन्धक, वेदक-अवेदक, उदयी-अनुदयी एवं उदीरक-अनुदीरक होने के सम्बन्ध में भगवान् का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। ज्ञानावरणीयादि कर्मों के बंध आदि क्यों और कैसे ?—जैनेतर दार्शनिक या अन्य यूथिक प्राय: यह समझते हैं कि उत्पल (कमल) का जीव एकेन्द्रिय होने से उसमें संज्ञा (समझने-सोचने की बुद्धि) नहीं होती, द्रव्यमन न होने से वह कोई विचार नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में वह ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध, वेदन, उदय या उदीरणा कैसे कर सकता है ? इसी हेतु से प्रेरित होकर पहले से आठवें उद्देशक तक श्री गौतमस्वामी ने ये बंधादिविषयक प्रश्न उठाए हों और भगवान् ने इनका अनेकान्तदृष्टि से उत्तर दिया हो, ऐसा सम्भव है। भगवान् के उत्तरों से ध्वनित होता है कि एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक जीवों में अन्तश्चेतना (भावसंज्ञा.) तथा भावमन होता है, जिसके कारण वे चाहे विकसित चेतना वाले न हों, परन्तु मिथ्यात्वदशा में होने से विपरीतदिशा में सोचकर भी ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध कर लेते हैं। वे कर्मों को वेदते भी हैं, उदय वाले भी होते हैं और उदीरणा भी विपरीत दिशा में कर लेते हैं। ___ एक-अनेक जीव बंधक आदि कैसे ?–उत्पल के प्रारम्भ में जब उसके एक ही पत्ता होता है, तब एक जीव होने से एक जीव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बन्धक होता है, परन्तु जब उसके अनेक पत्ते होते हैं तो उसमें अनेक जीव होने से अनेक जीव बन्धक होते हैं। आयुष्यकर्म तो पूरे जीवन में एक बार ही बंधता है, उस बंध-काल के अतिरिक्त जीव आयुष्यकर्म का अबन्धक होता है। इसलिए आयुष्यकर्म के बन्धक और अबन्धक की अपेक्षा से आठ भंग होते हैं, जिनमें चार असंयोगी और चार द्विकसंयोगी होते हैं। वेदक एवं उदीरक भंग–वेदकद्वार में एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से दो भंग होते हैं, परन्तु सातावेदनीय और असातावेदनीय की अपेक्षा से पूर्वोक्त आठ भंग होते हैं । उदीरणाद्वार में छह कर्मों में प्रत्येक में दो-दो भंग होते हैं, किन्तु वेदनीय और आयुष्य कर्म के पूर्वोक्त आठ भंग होते हैं। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५१२ २. वही अ, वृत्ति पत्र ५१२
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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