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________________ चौदहवां शतक : उद्देशक-५ ३९३ [७-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? [७-२ उ.] गौतम ! पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव दो प्रकार के हैं, यथा-विग्रहगति समापनक और अविग्रहगतिसमापन्नक। जो विग्रहगतिसमापन्नक पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनका कथन नैरयिक के समान जानना चाहिए, यावत् उन पर शस्त्र असर नहीं करता। अविग्रहसमापन्नक पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक दो प्रकार के कहे गए हैं-ऋद्धिप्राप्त और अनृद्धिप्राप्त (ऋद्धि-अप्राप्त)। जो ऋद्धिप्राप्त, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनमें से कोई अग्नि के मध्य में हो कर जाता है और कोई नहीं जाता है। [प्र.] जो अग्नि में हो कर जाता है, क्या वह जल जाता है ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं, क्योंकि उस पर (अग्नि आदि) शस्त्र असर नहीं करता। परन्तु जो ऋद्धिअप्राप्त पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनमें से भी कोई अग्नि में हो कर जाता है और कोई नहीं जाता है। [प्र.] जो अग्नि में से हो कर जाता है, क्या वह जल जाता है ? [उ.] हाँ, वह जल जाता है। इसी कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि कोई अग्नि में से हो कर जाता है और कोई नहीं जाता है। .८. एवं मणुस्से वि। [८] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी कहना चाहिए। ९. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिए जहा असुरकुमारे। [९] वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के विषय में असुरकुमारों के समान कहना चाहिए। विवेचन—विग्रहगतिसमापन्नक और अविग्रहगतिसमापनक-एक गति से दूसरी गति में जाते हुए जीव विग्रहगतिसमापन्नक कहलाते हैं। वह जीव उस समय कार्मणशरीर से युक्त होता है और कार्मणशरीर सूक्ष्म होने से उस पर अग्नि आदि शस्त्र असर नहीं कर सकते। जो जीव उत्पत्तिक्षेत्र को प्राप्त हैं, वे अविग्रहगतिसमापन्नक कहलाते हैं। अविग्रहगतिसमापन्नक का अर्थ यहाँ 'ऋजुगति-प्राप्त' विवक्षित नहीं है, क्योंकि उसका यहाँ प्रसंग नहीं है । उत्पत्तिक्षेत्र को प्राप्त नैरयिक जीव, अग्निकाय के बीच में से होकर नहीं जाता, क्योंकि नरक में बादर अग्निकाय का अभाव है। मनुष्यक्षेत्र में ही बादर अग्निकाय होता है। उत्तराध्ययन आदि शास्त्रों में हुयासणे जलंतंमि दड्ड पुव्वो अणेगसो', अर्थात् नारक जीव अनेक बार जलती आग में जला, इत्यादि वर्णन आया है, वहाँ अग्नि के सदृश कोई उष्णद्रव्य समझना चाहिए। सम्भव है, तेजोलेश्या द्रव्य की तरह का कोई तथाविध शक्तिशाली द्रव्य हो। असुरकुमारादि भवनपति की अग्नि-प्रवेश-शक्ति-विग्रहपति असुरकुमार का वर्णन विग्रहगति नैरयिक के समान जानना चाहिए। अविग्रहगतिप्राप्त (उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त) असुरकुमारादि जो मनुष्यलोक में आते हैं, वे यदि अग्नि के मध्य में होकर जाते हैं, तो जलते नहीं क्योंकि वैक्रियशरीर अतिसूक्ष्म हैं और उनकी गति शीघ्रतम होती है। जो असुरकुमार आदि मनुष्यलोक में नहीं आते, वे अग्नि के मध्य में होकर नहीं जाते। शेष तीन
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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