________________
चौदहवाँ शतक : उद्देशक - ५
३८९
विवक्षित केवली-समुद्घात विशिष्ट वर्णादि परिणाम की अपेक्षा चरम है, क्योंकि केवलज्ञानी के निर्वाण प्राप्त कर लेने से वह परमाणु पुनः उस विशिष्ट परिणाम को प्राप्त नहीं होता । विशेषणरहित भाव की अपेक्षा वह अचरम है । यह व्याख्या चूर्णिकार के मतानुसार की गई है।
कठिन शब्दार्थ — दव्वट्ठाए — द्रव्य की अपेक्षा । वण्णपज्जवेहिं — वर्ण के पर्यायों से । दव्वादेसेणंद्रव्यादेश (द्रव्य की अपेक्षा से) । चरिमे— अन्तिम | अचरिमे अचरम । परिणाम : प्रज्ञापनाऽतिदेशपूर्वक भेद-प्रभेद - निरूपण
१०. कतिविधे णं भंते ! परिणामे पन्नत्ते ?
गोमा ! दुविहे परिणामे पन्नत्ते, तं जहा— जीवपरिणामे य, अजीवपरिणामे य । एवं परिणामपदं निरवसेसं भावियव्वं ।
1
सेंव भंते! सेवं भंते! ति जाव विहरति ।
१.
॥ चोदसमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥ १४-४॥
[१० प्र.] भगवन् ! परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ?
[१० उ. ] गौतम ! परिणाम दो प्रकार का कहा गया है । यथा— जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम ।
इस प्रकार यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का समग्र परिणामपद (तेरहवाँ पद) कहना चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है— यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते
विवेचन — परिणाम : लक्षण और भेद-प्रभेद - द्रव्य को सर्वथा एक रूप में नहीं रहना अर्थात् द्रव्य की अवस्थान्तर - प्राप्ति ही परिणाम है ।
परिणाम के मुख्यतया दो भेद हैं— जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम |
जीव परिणाम के दस भेद हैं- (१) गति, (२) इन्द्रिय, (३) कषाय, (४) लेश्या, (५) योग, (६) उपयोग, (७) ज्ञान, (८) दर्शन, (९) चारित्र और (१०) वेद । अजीव - परिणाम के भी १० भेद हैं— ( १ ) बन्धन, (२) गति, (३) संस्थान, (४) भेद, (५) वर्ण, (६) गन्ध, (७) रस, (८) स्पर्श, (९) अगुरुलघु और (१०) शब्दपरिणाम ।
॥ चौदहवाँ शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
(क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४०
(ख) भगवती. ( हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २३०८
२. वही, (हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २३०८
३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४१
४
(क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४१
(ख) प्रज्ञापनासूत्र (पण्णवणासुत्तं) भा. १ सू. ९२५-५७ ( महावीर विद्यालय प्रकाशन) पृ. २२९ से २३३ तक