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चौदहवाँ शतक : उद्देशक - ३
शस्त्राक्रमण कर सकता है।
जीवाभिगमसूत्रातिदेशपूर्वक नैरयिकों के द्वारा वीस प्रकार के परिणामानुभव का प्रतिपादन
१४. रतणप्पभापुढविनेरइया णं भंते । केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिट्ठ जाव अमणामं ।
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[ १४ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलपरिणामों का अनुभव करते रहते हैं ? [ १४ उ.] गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमनाम (मन के प्रतिकूल पुद्गलपरिणाम) का अनुभव करते रहते
हैं।
१५. एवं जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया ।
[१५] इसी प्रकार अधः सप्तमपृथ्वी के नैरयिकों तक कहना चाहिए ।
१६. एवं वेदणापरिणामं ।
[१६] इसी प्रकार वेदना - परिणाम का भी ( अनुभव करते हैं) ।
१७. एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्देसए, जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं परिग्गहसण्णापरिणामं पच्चणुभवमाणा विहरंति ?
गोयमा ! अणिट्ठे जाव अमणामं ।
सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ।
॥ चोद्दसमे सए : तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ १४-३॥
[१७] इसी प्रकार जीवाभिगमसूत्र (की तृतीय प्रतिपत्ति) के द्वितीय नैरयिक उद्देशक में जैसे कहा है, वैसे यहाँ भी वे समग्र आलापक कहने चाहिए, यावत्—
[प्र.] भगवन् ! अधः सप्तमपृथ्वी के नैरयिक, किस प्रकार के परिग्रहसंज्ञा - परिणाम का अनुभव करते
१.
(क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६३७
(ख) भगवती. श. १०, उ. ३, सूत्र. ६ -१७
(ग) द्वितीयालापक का सूत्रशेष— 'गोयमा ! पुव्विं सत्थेणं अक्कमित्ता वीईवएज्जा, नो पुव्विं वीईवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमिज्जा ।' — भगवती. श. १० उ. ६ सू. ६-९७
(घ) तृतीय महर्द्धिक- अल्पर्द्धिक-आलापक — 'महड्ढिए णं भंते! देवे अप्पढियस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीवज्जा ?' हंता, वीइवएज्जा । 'से णं भंते ! किं सत्थेणं अक्कमित्ता पभू अणक्कमिता पभू ? 'गोयमा ! अक्कमित्तावि पभू, अणक्कमित्ता वि पभू । 'से णं भंते ! किं पुव्विं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा, पुव्वि वीइवएज्जा, पच्छा सत्थेणं अक्कमेज्जा ?' गोयमा ! पुव्विं वा सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीइयएज्जा, पुव्विं वा वीइवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमिज्जा ।' — भगवती. श. १० उ. ३, सू. ६ -१७