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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक-१० ३५९ . उनसे मुख, उदर आदि छिद्रों एवं कान, आदि अन्तरालों को भरकर लम्बाई-चौड़ाई में शरीर-परिमाण क्षेत्र में व्याप्त हो-होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, तब वह कषायकर्मरूप पुद्गलों की प्रबलता से निर्जरा करता है। यह कषायसमुद्घात है। मरणान्तिकसमुद्घात–मरणकाल में होने वाला समुद्घात मारणान्तिकसमुद्घात है। मारणान्तिकसमुद्घात आयुष्यकर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है। अर्थात्-जब आयुष्यकर्म एक अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है, तब कोई जीव मुख-उदरादि छिद्रों तथा कर्ण-स्कन्धादि अन्तरालों में बाहर निकले हुए अपने आत्मप्रदेशों को भर कर विष्कम्भ (घेरा) और मोटाई में शरीरपरिमाण, लम्बाई में कम से कम अपने शरीर के अंगुल के असंख्यातवें भाग-परिमाण तथा अधिक से अधिक एक दिशा में असंख्यात-योजन क्षेत्र को व्याप्त करके रहता है और प्रभूत आयुष्यकर्मपुद्गलों की निर्जरा करता है। वैक्रियसमुद्घात—विक्रिया के प्रारम्भ करने पर होने वाला समुद्घात वैक्रियसमुद्घात है। यह नामकर्ग के आश्रित होता है। वैक्रियलब्धिवाला जीव विक्रिया करते समय आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर-परिमाण तथा लम्बाई में संख्यात-योजन-परिमाण दण्ड निकालता है और पूर्वबद्ध स्थूल वैक्रियशरीरनामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा कर लेता है। . तैजससमुद्घात—यह समुद्घात तेजोलेश्या निकालते समय तैजसशरीरनामकर्म के आश्रित होता है। तेजोलेश्या की स्वाभाविक लब्धि प्राप्त कोई साधु आदि७-८ कदम पीछे हट कर जब आत्मप्रदेशों को विष्कम्भ और मोटाई में शरीर-परिमाण और लम्बाई के संख्यातयोजन-परिमाण दण्ड शरीर से बाहर निकाल कर क्रोध के विषयभूत जीवादि को जलाता है, तब तैजसनामकर्म के प्रभूत कर्मपुद्गलों की निर्जरा करता है। __ आहारकसमुद्घात—यह समुद्घात आहारकशरीर नामकर्म के आश्रित होता है। आहारक-शरीर का प्रारम्भ करने पर होने वाला समुद्घात आहारकसमुद्घात कहलाता है। आशय यह है कि आहारकशरीर की लब्धिवाला कोई मुनिराज आहारकशरीर के निर्माण की इच्छा से अपने आत्म-प्रदेशों को विष्कम्भ और मोटाई में शरीरपरिमाण और लम्बाई में संख्यातयोजन-परिमाण दण्ड के आकार में बाहर निकालता है, तब वह यथास्थूल पूर्वबद्ध आहारकशरीरनामकर्म के प्रभूत कर्मपुद्गलों की निर्जरा कर लेता है। प्रज्ञापनासूत्र के छत्तीसवें समुद्घात-पद में केवलीसमुद्घात' का भी वर्णन है, किन्तु वह यहाँ अप्रासंगिक होने से उसका वर्णन नहीं किया गया है।' ॥ तेरहवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त॥ ॥तेरहवां शतक सम्पूर्ण ॥ ००० १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ सू. २१४७, पृ. ४३८ (महावीर जैन विद्यालय) (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६२९ (ग) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२७३-२२७४
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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