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तेरहवाँ शतक : उद्देशक - ९
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बिना ही कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो उसके आराधना नहीं (विराधना ) होती है; इत्यादि तीसरे शतक के चतुर्थ उद्देशक (सू. १९) के अनुसार यावत् — आलोचना और प्रतिक्रमण कर ले तो उसके आराधना होती है, (यहाँ तक कहना चाहिए) ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं ।
विवेचन—आराधक - विराधक का रहस्य — प्रस्तुत उद्देशक में भावितात्मा अनगार की विविध प्रकार की वैक्रिय शक्ति की प्ररूपणा की गई है, किन्तु उद्देशक के उपसंहार में स्पष्ट बता दिया है कि इस प्रकार की विकुर्वणा वैक्रियलब्धिसम्पन्न पायी (प्रमादी) अनगार करता है, अमायी (अप्रमादी) अनगार नहीं करता । किन्तु मायी (प्रमादी) अनगार किसी कारणवश यदि इस प्रकार की विकुर्वणा करके अन्तिम समय में आलोचनाप्रतिक्रमण कर लेता है, तो वह आराधक होता है। यदि वह इस प्रमादस्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो विराधक होता है ।
॥ तेरहवाँ शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त ॥
१.
(क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ६५६
(ख) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र खण्ड १ ( आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) श. ३ उ. ४ सू. १९, पृ. ३५९-३६० (ग) भगवती ( हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २२७२