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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
श्रमणोपासक धर्मरत अभीचि को वैरविषयक आलोचन-प्रतिक्रमण न करने से असुरकुमारत्व प्राप्ति
३३. तए णं से अभीयो कुमारे समणोवासए यावि होत्था, अभिगय० जाव विहरति। उदायणम्मि रायरिसिम्मि समणुबद्धवेरे यावि होत्था।
[३३] उस समय (चम्पा नगरी में रहते-रहते कालान्तर में) अभीचि कुमार श्रमणोपासक बना। वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता यावत् (बन्ध-मीक्षकुशल हो कर) जीवनयापन करता था। (श्रमणोपासक होने पर भी अभीचि कमार) उदायन राजर्षि के प्रति वैर के अनबन्ध से यक्त था।
३४. तेणं कालेणं तेणं समएणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु चोसटुिं असुरकुमारावाससयसहस्सा पनत्ता। __[३४] उस काल, उस समय में (भगवान् महावीर ने) इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के परिपार्श्व में असुरकुमारों के चौसठ लाख असुरकुमारावास कहे हैं।
३५. तए णं अभीयी कुमारे बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणति, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेइ, छे० २ तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु चोयट्ठीए आतावा जाव सहस्सेसु अण्णतरंसि आतावाअसुरकुमारावासंसि आतावाअसुरकुमारदेवत्ताए उववन्ने।
[३५] उस अभीचि कुमार ने बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन किया और उस (अन्तिम) समय में अर्द्धमासिक संल्लेखना से तीस भक्त अनशन का छेदन किया। उस समय (उदायन राजर्षि के प्रति पूर्वोक्त वैरानबन्धरूप पाप-) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना मरण के समय कालधर्म को प्राप्त करके (अभीचि कुमार) इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास्त्रों के निकटवर्ती चौसठ लाख आताप नामक असुरकुमारावासों में से किसी आताप नामक असुरकुमारावास में आतापरूप असुरकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुआ।
३६. तत्थ णं अत्थेगइयाणं आतावगाणं असुरकुमाराणं देवाणं एवं पलिओवमं ठिती पन्नत्ता। तत्थ णं अभीयिस्स वि देवस्स एगं पलिओवमं ठिती पन्नत्ता।
[३६] वहाँ कई आताप-असुरकुमार देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है। वहाँ अभीचि देव की स्थिति भी एक पल्योपम की है।
विवेचन—प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. ३३ से ३६ तक) में अभीचि कुमार के श्रमणोपासक होने पर उदायन राजर्षि के वैरानुबद्ध होने तथा उस पापस्थान की अन्तिम समय में आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही अर्द्धमासिक अनशनपूर्वक काल करने से आताप-असुरकुमारों में से पल्योपम की स्थिति वाले देव बनने का वर्णन किया है।